SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) ४२७ मत में निर्वाण माव और अभाव दोनों नहीं है । वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपञ्चोपशमता है। बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान विद्वानों में बौद्ध-दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है, उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है । पालि-निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है। उदान नामक एक लघु ग्रन्थ में ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है । निर्वाण भावात्मक तथ्य इस सन्दर्भ में बुद्ध-वचन इस प्रकार है-"भिक्षुओ! निर्वाण अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है । भिक्षुओ! यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत, और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता। भिक्षुओ! क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है, इसलिए जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता है । धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, सुत्तनिपात में प्रणीत एवं अमृत पद कहा गया है, जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता है, न शोक होता है । उसे शान्त, संसारोपशम, एवं सुखपद भी कहा गया है।" इतिवृत्तक में कहा गया है कि वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और रागरहित है । सभी दुःखों का वहाँ निरोध हो जाता है। वह संस्कारों की शान्ति एवं सुख है। आचार्य बुद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमार्ग में लिखते हैं-“निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । भव और जरामरण के अभाव से वह नित्य है, अशिथिल-पराक्रमसिद्ध, विशेषज्ञान से प्राप्त किये जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण विद्यमान है।" निर्वाण अभावात्मक तथ्य निर्वाण की अभावात्मकता के सम्बन्ध में उदान में निम्न बुद्ध-वचन हैं-"लोहे के घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं वे तुरन्त ही बुझ जाती हैं, कहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम-बन्धन से मुक्त हो निर्वाण प्राप्त पुरुष की गति का कोई भी पता नहीं लगा सकता। शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी, बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया । १-२. उदान ८।३, इतिवृत्तक, २।२।६ ३. धम्मपद, २०३-२०४ ४. सुत्तनिपात, १३१४ ५. धम्मपद, ३६८ ६. इतिवृत्तक, २।२।६ ७. विसुद्धिमग्ग, भाग २, पृ० ११९-१२१ ८. उदान, ८.१० ९. उदान, ८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy