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________________ जेन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन लंकावतारसूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है | उसके अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है । विज्ञानवादी निर्वाण का जैन- विचार से इन अर्थों में साम्य है --- (१) निर्वाण चेतना का अभाव नहीं है, वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है, (२) निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है, (३) निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान (आत्मपरिणामोपन ) रहती है (यद्यपि डा० चन्द्रधर शर्मा ने आलयविज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है ) । पं० बलदेव उपाध्याय ने भी इस प्रवाहमानता या परिवर्तनशीलता का समर्थन किया है ।२ (४) निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है । जैन विचारणा के अनुसार भी मोक्ष की अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं, (५) असंग ने महायानसूत्रालंकार में धर्मकाय को, जो निर्वाण को पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है । जैन विचारणा में भी मोक्ष को स्वभावदशा कहा जाता है । स्वाभाविक - काय और स्वभावदशा में अर्थसाम्य है । ४२६ ४. शून्यवाद - बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रदाय में निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है । जैन तथा जैनेतर दार्शनिकों ने शून्यता का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को अभावात्मक रूप में देखा है । लेकिन यह उस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही है । माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है और वही परमतत्त्व है । वह न भाव है न अभाव है । यदि वाणी से उसका निर्वचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । " निर्वाण को भावरूप इसलिए नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य । नित्य मानने पर निर्वाण के लिए प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा । निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता ? निर्वाण को प्राण और सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा कि वह काल- विशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा । निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा शास्ता के मध्यममार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि से ग्रसित होंगे । इसलिए माध्यमिक १. ए क्रिटिकल सर्वे आफ इंडियन फिलासफी, पृ० ३२२ २. बौद्ध दर्शन - मीमांसा, पृ० २४४ ३. महायानसूत्रालंकार, ९।६०, उद्धृत महायान, पृ० ७३ ४. माध्यमिककारिकावृत्ति, पृ० ५२४ (सेन्ट्रल० बुद्धिज्म, पृ० २७४ ) ५. वही, पृ० ५२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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