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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) ४२५ नहीं रहता। क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्त्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और निर्वाण-दशा में परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है । अतः उसके परे कोई सत्ता शेष नहीं रहती। इस प्रकार सौत्रांतिकनिर्वाण अभावात्मक अवस्था मात्र है । सम्प्रति बर्मा और लंका के बौद्ध भी निर्वाण को अभावात्मक या अनस्तित्व के रूप में देखते हैं । निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारधारा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक जोर देती है । यद्यपि इस प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के निर्वाण का अभावात्मक दृष्टिकोण जैन-विचार के विरोध में जाता है, तथापि सौत्रान्तिकों में भी एक ऐसा उपसम्प्रदाय था जिसके अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं थी। उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना-पर्यायों का प्रवाह रहता है। यह दृष्टिकोण जैन-विचार की इस मान्यता के निकट है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्षदशा में आत्मा में चैतन्य ज्ञान-धारा सतत रूप से प्रवाहित होती रहती है। ३. विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्तिविज्ञानों की अप्रवृत्तावस्था है, चित्त-प्रवृत्तियों का निरोध है।' स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय है । असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण) अचित्त है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है । वह अनुपलब्ध है। क्योंकि उसका कोई बाह्य आलम्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बनरहित होने से लोकोत्तर ज्ञान है। दोष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्तचित्त (आलयविज्ञान) परावृत्त नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता। वह अनावरण और अनास्र वधातु है । लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। निर्वाण अचिन्त्य है। क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता। लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुखरूप है, विमुक्तकाय है और धर्माख्य है। इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है । वस्तुतः निर्वाण के अनिवर्चनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। १. लंकावतारसूत्र, २०६२ २. त्रिंशिका-विज्ञप्तिभाष्य, पृ० १५ उद्धृत-बौद्ध-दर्शन-मीमांसा, पृ० १५० ३. वही, २९ ४. वही, ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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