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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
चेतना एवं क्रिया-शून्य जड़ अवस्था है । लेकिन एस० के० मुकर्जी, प्रो० नलिनाक्षदत्त' और प्रो० मूर्ति ने प्रो० शारवात्स्की के इस दृष्टिकोण का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित रूप से एक भावात्मक अवस्था है । इसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता है फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता है । वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं होता है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रो० शारवात्सकी निर्वाण-दशा में चेतना का अभाव मानते हैं, लेकिन प्रो० मुकर्जी इस सम्बन्ध में एक परिष्कृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं कि यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध मानस या चेतना रहती है। डा० लाड ने अपने शोध-प्रबन्ध में एवं पं० बलदेव उपाध्याय ने बौद्धदर्शन-मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय उपसम्प्रदाय का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सासव) चेतना का ही अभाव होता है । इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दशा में अनास्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है । वैभाषिकों के इस उपसंप्रदाय का यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन-सम्मत निर्वाण के अति समीप आ जाता है । क्योंकि यह जन-दर्शन के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है। वैभाषिक दृष्टिकोण-निर्वाण को संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, द्रव्य-सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है। फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है ।
२. सौत्रान्तिक सम्प्रदाय-सौत्रान्तिक वैभाषिकों के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों का अभाव है, यह स्वीकार नहीं करते हैं कि असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती है। इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्त्व का यथार्थ स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है। शारवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया का समाप्त हो जाना, जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवन-शून्य तत्व शेष नहीं रहता, जिसमें जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो गयी हो।' निर्वाण क्षणिक चेतना-प्रवाह का समाप्त हो जाना है, जिसके बाद कुछ भी शेष
१. आस्पेक्टस् आफ महायान इन रिलेशन टू हीनयान, पृ० १६२ २. सेन्ट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ० २७२-२७३ ३. बुद्धिस्ट फिलासफी, पृ० २५१ ४. (अ) लिबरेशन, पृ० ६९ (ब) बौद्ध-दर्शनमीमांसा, पृ० १४७ ५. कन्सेप्शन आफ बुद्धिस्ट निर्वाण, पृ० २९
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