________________
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
३. आचारदर्शन आचरण का मूल्यांकन और नैतिक प्रतिमान की समीक्षा करता है-चेतना के साथ जब विवेक प्रस्फुटित होता है तब मनुष्य अपने और अपने साथियों के आचरण को हर कदम पर तौलता है, निर्णय करता है और विचार करता है कि वह आचरण मानवजीवन के लक्ष्य की दिशा में है या नहीं। युगों से मानव अपने आचरण का मूल्यांकन करता रहा है। चेतन अथवा अचेतन रूप में हर विचारशील मनुष्य के समक्ष उचित और अनुचित का एक मानदण्ड रहता है। फिर चाहे उसका यह मानदण्ड तर्कविरुद्ध और अस्थिर ही क्यों न हो, वह अपने इसी मानदण्ड के आधार पर औचित्य और अनौचित्य का निर्णय देता है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी मानदण्ड का उपयोग करता है, फिर भी विरले ही ऐसे हैं जो सोचते हैं कि नैतिकता के मानदण्डों या प्रतिमानों की विभिन्न अवधारणाएँ क्या हैं और वास्तविक नैतिक प्रतिमान कौन सा है ? नैतिक मानदण्ड का बोध और उसकी समीक्षा आचारदर्शन के अध्ययन के द्वारा ही सम्भव है। उत्तराध्ययनसूत्र में गणधर गौतम कहते हैं कि प्रज्ञा के द्वारा धर्म ( नैतिकता ) की समीक्षा करो और और तर्क के द्वारा तत्त्व का विश्लेषण करो' तथा वैज्ञानिक समीक्षा के आधार पर धर्म के साधनों अर्थात् आचार के प्रारूपों का निर्णय करो।२ आचारदर्शन का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि हमारे नैतिक निर्णय सत्य बन सकें।
प्रश्न चाहे उचित-अनुचित के विवेक का हो, चाहे आदर्श के निर्धारण का अथवा नैतिक निर्णय की समस्या का; आचारदर्शन का अध्ययन अनिवार्य है। जैन दार्शनिकों के अनुसार समूचा साधना-मार्ग ज्ञान की प्राथमिकता पर अवस्थित है। प्रथम ज्ञान, और तदनुसार आचरण, यही जैन आचारदर्शन का स्वर्णिम सूत्र है। अज्ञानी आत्मा क्या साधना करेगा ? वह शुभ और अशुभ, श्रेय और प्रेय अथवा कल्याण और पाप के मार्ग को कैसे जानेगा? इसलिए जैन आचार्यों का स्पष्ट निर्देश है कि पहले श्रुत के अध्ययन के द्वारा शुभ और अशुभ के स्वरूप को समझो और उन्हें ठीक-ठीक जानकर श्रेय का आचरण करो।४ आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि जो श्रेय और अश्रेय के सम्बन्ध में विज्ञ है वही दुराचरण से निवृत्त होकर सदाचारी बनता है और उसी सदाचार की साधना के द्वारा आत्मविकास करता हुआ परमसाध्य निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।५ गीता का भी कहना है कि शुभ ( कर्म ), अशुभ ( विकर्म ) और शुद्ध कर्म ( अकर्म ) के स्वरूप को जानना
१. उत्तराध्ययन, २३१२५. २. वही, २३।३१. ३. दशवकालिक, ४।१०. ४. वही, ४।११. ५. दर्शनपाहुड, १६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org