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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप उपलब्धि का साधन बताया गया है। गीता में श्रीकृष्ण ने भी परमश्रेय और उसके साधनामार्ग के रूप में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का उपदेश दिया है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का अध्ययन जीवन के परम श्रेय और उसकी उपलब्धि के मार्ग का निर्देशक बन सकता है, और इसलिए उनका अध्ययन भी अपेक्षित है।
२. आचारदर्शन आचरण के औचित्य और अनौचित्य का विवेक सिखाता है-जीवन कर्ममय है। कर्मशून्य जीवन जड़ता है। जीवन और आचरण में इतना निकटतम सम्बन्ध है कि दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक ओर आचरण की सम्भावना जीवन के अस्तित्व के साथ जुड़ी है, तो दूसरी ओर आचरण ही जीवन का लक्षण है। जैनदर्शन में आचरण को जीव का लक्षण और कर्म को संसार का मूल २ माना गया है। जगत् के सभी प्राणी कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं से युक्त होते हैं। वे निरन्तर क्रियाशील रहते हैं। गीता कहती है कि जगत् के प्राणी किसी भी क्षण क्रिया ( कर्म ) से विरत नहीं होते हैं। बौद्ध विचारधारा के अनुसार तो क्रियाशीलता ही जीवन है, क्रिया से भिन्न कर्ता का अस्तित्व ही नहीं है। क्रिया ही कर्ता है।४ पाश्चात्य चिन्तक मैथ्यू आर्नाल्ड के अनुसार, आचरण जीवन का तीन-चौथाई भाग है।५ मैकेंजी का कथन है कि प्रयोजनयुक्त क्रियाशीलता की दृष्टि से देखा जाये तो आचरण ही जीवन है ।' इस प्रकार यदि जीवन आचरणमय है, तो प्रश्न उठता है कि क्या आचरण के सभी रूपों की उपयोगिता समान है ? उत्तर स्पष्टरूप से नकारात्मक है। आचरण के सभी रूपों की उपयोगिता समान नहीं मानी जा सकती। आचरण के कुछ प्रारूप व्यक्ति एवं समाज के लिए कल्याणकारी होते हैं और कुछ प्रारूप अकल्याणकारी । अतः स्वाभाविक ही यह जिज्ञासा होती है कि आचरण के कौन से प्रारूप वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के लिए हितकर हैं और कौन से अहितकर ? दूसरे शब्दों में कौन सा आचरण उचित एवं कौन सा अनुचित है ? आचारदर्शन आचरण के विज्ञान के रूप में आचरण के औचित्य एवं अनौचित्य का निर्देश करता है। दशवैकालिक में कहा गया है कि श्रुत के अध्ययन के द्वारा ही कल्याणकारी और पापकारी प्रवृत्तियों का बोध होता है। गीता के अनुसार, कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाणभूत है। इस प्रकार पुण्य-पाप, उचित-अनुचित या कर्तव्य-अकर्तव्य के बोध के लिए आचारदर्शन का अध्ययन नितान्त आवश्यक है। १. उत्तराध्ययन, २८।११. २. आचारांगनियुक्ति, १८९. ३. गीता, ३५. ४. विसुद्धिमग्ग, उद्धृत-बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन ( प्रथम भाग), पृ० ५११. ५. देखिए-नीतिप्रवेशिका, पृ० २१. ६. वही, पृ० २१. ७. दशवैकालिक, ४।११.
८. गीता, १६।२४. Jain Education International
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