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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ६२. आचारदर्शन के अध्ययन की आवश्यकता
मानव में निहित चिन्तन की प्रक्रिया जब उसके सामने जीवन के परमश्रेय एव आचरण के औचित्य-अनौचित्य के निर्धारण के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न खड़े कर देती है, तो उनके उत्तर हमें आचारदर्शन के अध्ययन से ही प्राप्त होते हैं । वही परमश्रेय के विषय में हमें दिशा-निर्देश करता है। मानव में अपने और अपने साथियों के आचरण को तौलने की जो प्रवृत्ति है, उसका सम्यक् समाधान भी आचारदर्शन के अध्ययन द्वारा ही पाया जा सकता है। आचारदर्शन ही औचित्य-अनौचित्य का बोध कराता है, वही साध्य और उसकी प्राप्ति के साधना-पथ का निर्देश करता है और शुभाशुभ के प्रतिमान को भी निश्चित करता है। इस तरह आचारदर्शन के बहुमुखी अध्ययन की उपयोगिता अपने में महत्त्वपूर्ण है, जिसे निम्नलिखित आधारों पर जाना जा सकता है
१. आचारदर्शन साध्य और उसकी उपलब्धि के मार्ग का निर्देशक है-- सामान्यतया गति जड़ और चेतन दोनो में होती है । जड़ की गति अन्धी होती है जबकि चेतन की गति लक्ष्योन्मुख होती है। लक्ष्योन्मुख दिशा में आचरण करना ही चैतन्य-जीवन की विशिष्टता है। आत्म-चेतना एवं विवेकशीलता के कारण मनुष्य में स्वतः अपने लक्ष्य का निर्धारण करने और उसको उपलब्ध करने की क्षमता निहित है। मनुष्य के लिए अपने जीवन-लक्ष्य के निर्धारण का कार्य महत्त्वपूर्ण है। जीवन का परमश्रेय या आदर्श क्या है ? क्या भूख, प्यास, मैथुन आदि की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य है अथवा इनसे ऊपर भी जीवन का कोई महान् एवं व्यापक आदर्श है ? यदि है तो वह क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर आचारदर्शन के अध्ययन द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। उसी के द्वारा परमश्रेय या परमशुभ को जाना जा सकता है और वही हमें परमश्रेय की उपलब्धि का मार्ग बता सकता है। आचारदर्शन के सम्यक् अध्ययन के अभाव में न तो जीवन के आदर्श का बोध सम्भव है, न उसकी उपलब्धि का मार्ग मिल सकता है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि अन्धा चाहे कितना ही बहादुर हो, वह शत्रु-सेना को पराजित नहीं कर सकता; उसी प्रकार अज्ञानी या लक्ष्यबोध से विहीन साधक भी विकारों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता।' आचार्य बट्टकेर भी मूलाचार में लिखते हैं कि जिनशासन में केवल दो ही बातें बतायी गयी हैं-मार्ग ( साधनापथ ) और मार्ग का फल ( साधना का आदर्श)।२ इस प्रकार जैन विचारकों की दृष्टि में मनुष्य के लिए परमश्रेय और उसकी प्राप्ति का मार्ग, दोनों का ज्ञान आवश्यक है जो आचारदर्शन के अध्ययन से ही मिल सकता है। जहाँ बौद्ध आचारदर्शन में तृतीय आर्यसत्य दुःखनिरोध (निर्वाण ) के रूप में परमश्रेय और चतुर्थ आर्यसत्य अष्टांगिक मार्ग के रूप में साधनापथ का बोध कराया गया है, वहीं जैन आचारदर्शन में भी रत्नत्रय को जीवन के आदर्श, पूर्णता या मोक्ष की १. आचारांगनियुक्ति, २१९. २. मूलाचार, २०२.
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