________________
भारतीय आचारदर्शने का स्वरूप
६१. आचारदर्शन की मूलभूत समस्याएँ
मनुष्य विचारशील प्राणी है, इसलिए चिन्तन और मनन करना उसका प्रधान लक्षण है।' विचार और आचार ये मानवजीवन के दो पक्ष हैं । आचार जब विचार से समन्वित या सम्पृक्त होता है तब जीवन में विवेक प्रकट होता है। विवेकपूर्ण आचरण में ही मानवजीवन की महत्ता है। यों तो आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि सामान्य प्रवृत्तियाँ मनुष्य और पशु सब में समान ही होती हैं; किन्तु मनुष्य की विशेषता इसी में है कि उसके आचरण में विवेक हो ।२ विवेकशून्य मनुष्य पशु के समान है। विवेक ही मनुष्य को अपने लक्ष्य के विषय में सोचने के लिए प्रेरित करता है। मनुष्य विचार करता है कि वह कौन है, कहाँ से आया है, इस जगत् में उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उस उद्देश्य की प्राप्ति वह कैसे कर सकता है, कैसा आचरण श्रेयस्कर है और किस प्रकार का आचरण श्रेय से विमुख करता है। वह कैसे चले, कैसे खड़ा रहे, कैसे बैठे, कैसे भोजन करे और कैसे बोले, ताकि पाप-कर्मों का बन्ध न हो ? मानवीय जिज्ञासा की ये अभिव्यक्तियाँ जो जैन आगम आचारांग और दशवकालिक में पायी जाती हैं, स्पष्ट करती हैं कि मनुष्य के सामने अपने साध्य ( goal of life ) और उस साध्य को प्राप्त करने के मार्ग की समस्या सदैव रही है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक इकाई होने के नाते वह समाज में रहता तथा जीता है। अतः उसके सामने यह भी प्रश्न उठता है कि वह समाज के दूसरे सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करे। गीता में अर्जुन इसी समस्या को लेकर उपस्थित होता है कि युद्ध में प्रतिपक्षी के रूप में खड़े हुए स्वजनों के साथ वह किस प्रकार व्यवहार करे ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि परमशुभ (श्रेय) या साध्य और उसके साधना-मार्ग की व्याख्या तथा समाज-जीवन में पारस्परिक व्यवहार की समस्याएँ ही आचारदर्शन के प्रमुख प्रश्न हैं। आचारदर्शन को यह बताना है कि मनुष्य का परमशुभ ( ultimate good ) क्या है और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है। समाज में मनुष्य को अपने साथियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि । १. उत्तराध्ययनचूर्णि, ३. २. हितोपदेश, २५. ३. आचारांग, ११११४ ; दशवैकालिक, ४१७. ४. गीता, २॥६-८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org