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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) ४१९ सुख-दुःख में समभाव रखने वाला, क्षमाशील, संतुष्ट योगी, यतात्मा, दढनिश्चयी है. जिसका मन और बुद्धि परमात्मा में नियोजित है । जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी विसी उद्वग को प्राप्त नहीं होता। हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से जो रहित है और जो आकांक्षा से रहित, अंतर-बाह्य शुद्ध, व्यवहारकुशल, व्यथा से रहित, सभी आरम्भों (हिंसादि पापकर्मों) का त्यागी है। जो न कभी हर्षित होता है, न कभी द्वष करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशभ सम्पूर्ण कर्मों के प्रति फलासक्ति को त्याग चुका है । जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत. उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में समभाव से युक्त है।" ६८, शांकरवेदांत में जीवन्मुक्त के लक्षण आचार्य शंकर ने भी विवेकचूडामणि में जीवन्मुक्त के लक्षणों का विवेचन किया है। वे लिखते हैं कि 'जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जो निरन्तर आत्मानन्द का अनुभव करता है और प्रपंच को भूला-सा रहता है, वृत्ति के लीन रहते हुए भी जो जागता रहता है, किन्तु वास्तव में जो जागृति के धर्मो से रहित है तथा जिसका बोध सर्वथा वासनारहित है, वह पुरुष जीवन्मुक्त माना जाता है। प्रारब्ध की समाप्ति पर्यन्त छाया के समान सदैव साथ रहनेवाले, इस शरीर के वर्तमान रहते हुए भी इसमें अहं-ममभाव (मैं-मेरापन) का अभाव हो जाना, बीती हुई बात को याद न करना, भविष्य की चिन्ता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुख-दुःखादि में उदासीनता, अपने आत्मस्वरूप से सर्वथा पृथक्, इस गुण-दोषमय संसार में सर्वत्र समदर्शी होना, इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति में समान भाव रखना जीवन्मुक्त पुरुष का लक्षण है।" वस्तुतः जीवन्मुक्त व्यक्तित्व के सम्बन्ध में सभी आचार दर्शनों में पर्याप्त विचारसाम्य है। इतना ही नहीं, जीवन्मुक्त के लक्षणों में सभी ने समान शब्दों का भी उपयोग किया है। सभी आचार-दर्शनों में जीवन्मुक्त, स्थितप्रज्ञ, स्थितात्मा, वीतराग आदि शब्द पर्यायवाची है। सभी आचार-दर्शनों के अनुसार जीवन्मुक्त वह है जो राग-द्वेष और वासनाओं से ऊपर उठ चुका है एवं वीतराग, अनासक्त और समभाव से युक्त है। अरस्तू के आदर्श पुरुष का विवेचन और आधुनिक मनोविज्ञान में किया गया परिपक्व व्यक्तित्व का विवेचन भी कुछ अर्थों में जीवन्मुक्त के प्रत्यय के निकट है । जीवन्मुक्त के देह छोड़ने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, उसे विदेह-मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण कहा गया है। हाँ, समालोच्य दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ मत-वैभिन्न्य अवश्य है । २. विवेकचूड़ामणि, ४२९-४३५ १. गीता, १२।१३-१९ ३. अरस्तू, पृ० १२५-१२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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