SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप जैन तत्त्व-मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा को जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, वह मोक्ष है ।' कर्ममलों के अभाव में कर्म बन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है ।' अनात्मा में ममत्व आसक्तिरूप आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है । 8 ४ बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय है । आत्मा का विरूप पर्याय ही बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है । पर-पदार्थ या पुद्गल परमाणुओं के निमित्त से आत्मा में जो पर्याएँ उत्पन्न होती हैं और जिसके कारण 'पर' में आत्मभाव (मेरापन) उत्पन्न होता है, वही विरूपपर्याय है, परपरिणति है, 'स्व' की 'पर' में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और . मुक्ति दोनों आत्म- द्रव्य या चेतना की ही दो अवस्थाएँ हैं । विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाये तो बन्धन और मुक्ति की व्याख्या करना संभव नहीं है । क्योंकि आत्म तत्त्व स्वस्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता । विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है । लेकिन जब तत्त्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है तो बन्धन और मुक्ति की सम्भवानाएँ स्पष्ट हो जाती हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती है । मोक्ष को तत्त्व कहा गया है, लेकिन वस्तुतः मोक्ष तो बन्धन का अभाव ही है । जैनागमों में मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार हुआ है - ( १ ) भावात्मक दृष्टिकोण, (२) अभावात्मक दृष्टिकोण और (३) अनिर्वचनीय दृष्टिकोण | (अ) भावात्मक दृष्टिकोण जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन दार्शनिकों ने भावात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए मोक्षावस्था को निर्बाध अवस्था कहा है ।" मोक्ष अवस्था में समस्त बन्धनों के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं । मोक्ष बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और आत्मशक्तियों का पूर्ण प्रकटन है । जैन दर्शन के अनुसार मोक्षावस्था में मनुष्य की अव्यक्त शक्तियाँ व्यक्त हो जाती हैं । उसमें निहित ज्ञान, भाव और संकल्प आध्यात्मिक अनुशासन के द्वारा अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति में परिवर्तित हो जाते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक अवस्था का चित्रण करते हुए उसे "शुद्ध, अनन्तचतुष्टय युक्त, शाश्वत, अविनाशी, निबंध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, १. तत्त्वार्थ सूत्र, १०।३ ३. वही, पृ० ४३१ ५. Jain Education International २. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ० ४३१ ४. आत्ममीमांसा, पृ० ६६-६७ अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ६, पृ० ४३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy