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________________ ४१८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन तृष्णा-रहित हो गया हो, जो भूत तथा भविष्य पर आश्रित नहीं है और न आश्रित है वर्तमान पर, उसके लिए कहीं आसक्ति नहीं है । जो क्रोध, त्रास, आत्म-प्रशंसा और चंचलता-रहित है, जो विचार पूर्वक बोलनेवाला है, जो गर्व रहित है और वचन में संयमी है, जो दृष्टियों के फेर में नहीं पड़ता, जो आसक्ति, ढोंग, स्पृहा और मात्सर्य से रहित है । जो प्रगल्भी नहीं है, घृणा-रहित है और चुगलखोर नहीं है, जो प्रिय वस्तुओं में रत नहीं होता और अभिमान रहित है, जो शान्त और प्रतिभाशाली है, वह न तो अति श्रद्धालु होता है और न किसी से उदास रहता है। जो अनासक्ति भाव को जानकर आसक्ति रहित हो गया है, जिसमें भव या विभव के प्रति तृष्णा नहीं है, विषयों के प्रति उपेक्षावान् है, उसे उपशान्त कहता हूँ। उसके लिए ग्रन्थियाँ नहीं है, क्योंकि वह तृष्णा से परे हो गया है।" उसी ग्रन्थ में सभियपरिव्राजक को भी शान्त पुरुष एवं बुद्ध का स्वरूप बताते हुए ५ हा गया है कि जो स्वयं मार्ग पर चलकर शंकाओं से परे हो गया है, जो जन्म-मृत्यु को दूर कर परिनिर्वाण (जीवन्मुक्ति) प्राप्त है, जिसका ब्रह्मचर्यवास का उद्देश्य पूरा हो गया है, जो सर्वत्र उपेक्षाभाव (अनासक्ति) से युक्त है, जो हिंसा से विरत, स्मृतिवान् (अप्रमत्त) प्रज्ञ, निर्मल और तृष्णा से रहित है, जो त्रिकालदर्शी, (कर्म) रज और (कर्म) पाप से रहित, विशुद्ध जन्म-क्षय को प्राप्त है, उसे बुद्ध (अर्हत्) कहते हैं । सुत्तनिपात में आदर्श मुनि, आदर्श ब्राह्मण, आदर्श श्रमण, उपशान्तात्मा, स्थितात्मा आदि का वर्णन भी इसी रूप में किया गया है । ६७. गीता में स्थितप्रज्ञ का जीवनादर्श जैन दर्शन के वीतराग और बौद्ध दर्शन के अर्हत के जीवनादर्श के समान गीता में स्थितप्रज्ञ, प्रियभक्त एवं योगी के जीवनादर्श निरूपित हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि “जब व्यक्ति मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट होता है, दुःखों की प्राप्ति में भी जो उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों के प्रति जिसके मन में कोई स्पृहा नहीं है, जिसके राग, भय और क्रोध समाप्त हो गये हैं अर्थात् वीतराग है, जिसकी किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं है और जो शुभाशुभ के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, जिसको इन्द्रियाँ सब प्रकार के विषयों से वश में की हुई हैं, ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहा जाता है । जो पुरुष इस प्रकार सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर ममता, अहंकार और स्पृहा से रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।" गीता भक्त के सम्बन्ध में भी यही जीवनादर्श प्रस्तुत करती है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सभी प्राणियों में द्वष भाव एवं स्वार्थ से रहित होकर निष्काम भाव से सभी के प्रति मैत्री युक्त एवं करुणावान् है । जो ममता और अहंकार से रहित, १. सुत्तनिपात, ४८।२-६, ९-१० २. गीता, २१५५-५८, ७१-७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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