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नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष)
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रखता है, वही महापुरुष है।" जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना निर्मल होता है, उसी प्रकार जो राग-द्वेष और भय आदि से रहित, निर्मल है । जिस प्रकार कमल कीचड़ एवं पानी में उत्पन्न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो संसार के काम-भोगों में लिप्त नहीं होता, भाव से सदैव ही विरत रहता है, उस विरतात्मा, अनासक्त पुरुष को इन्द्रियों के शब्दादि विषय भी मन में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं करते। जो विषय रागी व्यक्तियों को दुःख देते हैं, वे वीतरागी के लिए दुःख के कारण नहीं होते हैं। वह राग, द्वोष और मोह के अध्यवसायों को दोष रूप जानकर सदैव उनके प्रति जागृत रहता हुआ माध्यस्थभाव रखता है। किसी प्रकार के संकल्प-विकल्प नहीं करता हुआ तृष्णा का प्रहाण कर देता है। वीतराग पुरुष रागद्वेष और मोह का प्रहाण कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है। इस प्रकार मोह, अन्तराय और आस्रवों से रहित वीतराग सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है। वह शुक्लध्यान और सुसमाधि सहित होता है और आयु का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। $ ६. बौद्ध दर्शन में अहंत का जीवनादर्श
प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन में नैतिक जीवन का आदर्श अर्हतावस्था माना गया है। बौद्ध दर्शन में अर्हत्-अवस्था से तात्पर्य तृष्णा या राग-द्वष की वृत्तियों का पूर्ण क्षय है। जो राग, द्वेष और मोह से ऊपर उठ चुका है, जिसमें किसी भी प्रकार की तृष्णा नहीं है, जो सुख-दुःख, लाभ-अलाभ और निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है, वही अर्हत् है । बुद्ध ने अनेक प्रसंगों पर अर्हत् के जीवनादर्श को प्रस्तुत किया है । बौद्ध-दर्शन में अर्हत् को स्थितात्मा, केवली, उपशान्त आदि नामों से भी जाना जाता है। धम्मपद एवं सुत्तनिपात में अर्हत् के जीवनादर्श का निम्न विवरण उपलब्ध है। धम्मपद के अर्हत्-वर्ग में कहा गया है कि "जो पृथ्वी के समान क्षुब्ध नहीं होता, जो इन्द्र के स्तम्भ के समान अपने व्रत में दृढ़ है, जो झील के सदृश कीचड़ अथवा चित्तमल से रहित है, उसके लिए संसार (जन्म-मरण का चक्र) नहीं होता। जो सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति से विमुक्त तथा उपशान्त हो चुका है, ऐसे व्यक्ति का मन शान्त हो जाता है । जो मनुष्य अंधविश्वासी नहीं है, जो अकृत अर्थात् निर्वाण को जानने वाला है, जिसने (जन्म-मरण) के बन्धनों को काट दिया है, जो (पाप-पुण्य को) अवकाश नहीं देता, जिसने तृष्णा को निकाल दिया है, वह पुरुषोत्तम कहलाता है ।" सुत्तनिपात में भी उपशांत पुरुष के स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि "जो इस शरीर के त्यागने के पहले ही
१-२ उत्तराध्ययन, १९।९०-९३, ३३।१०६-११० २९-२१, २७-२८ ३. धम्मपद, ९५-९७
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