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________________ ४१६ ___ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इन दो प्रकार का बताया है। एक धातु का नाम सोपादिशेष है, जो इस शरीर में बार-बार लानेवाली तृष्णा के क्षय के बाद प्राप्त होती है और दूसरी अनुपादिशेष है, जो शरीर छूटने के बाद प्राप्त होती है (इतिवृत्तक २७) । वैविक परम्परा में दो प्रकार की मुक्ति--गीता और वेदान्त की परम्परा में भी जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी है-१. जीवनमुक्ति और २. विदेह-मुक्ति । जीवन-मुक्ति रागद्वष और आसक्ति के पूर्णरूपेण समाप्त हो जाने पर प्राप्त होती है और ऐसा जीवन्मुक्त साधक जब अपना शरीर छोड़ देता है तो वह विदेह-मुक्ति कही जाती है । जैन दर्शन बौद्ध दर्शन वैदिक भावमोक्ष सोपादिशेष निर्वाण धातु जीवन-मुक्ति द्रव्यमोक्ष अनुपादिशेष निर्वाण धातु विदेह-मुक्ति इस तालिका के आधार पर जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों आचार दर्शन जीवनमुक्ति और विदेह-मुक्ति के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं । इतना ही नहीं, तीनों आचार दर्शन जीवन-मुक्त के स्वरूप के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण रखते हैं, साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक जीवन-मुक्ति प्राप्त नहीं होती तब तक निर्वाण, मोक्ष या परमात्मा को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । जीवन-मुक्ति प्राथमिक अवस्था है और व्यावहारिक जीवन में इसे नैतिक जीवन का जीवन-आदर्श स्वीकार किया जा सकता है। जिसे जीवन-मुक्त पुरुष को जैन-परम्परा में वीतराग कहा गया है, उसे ही वैदिक परम्परा में स्थितप्रज्ञ और बौद्ध -परम्परा में अर्हत् कहा गया है । आगे अब हम इसी जीवन-मुक्त पुरुष के सम्बन्ध में विचार करेंगे । ६५. जैनदर्शन में वीतराग का जीवनादर्श जैन-दर्शन में नैतिक जीवन का परमसाध्य वीतरागता की प्राप्ति रहा है । जैनदर्शन में वीतराग एवं अरिहन्त (अर्हत) इसी जीवनादर्श के प्रतीक हैं । वीतराग की जीवन-शैली क्या होती है, इसका वर्णन जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है । संक्षेप में उन आधारों पर उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में आदर्श पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा गया है "जो ममत्व एवं अहंकार से रहित है, जिसके चित्त में कोई आसक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया है, जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है। जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवनमरण, मान-अपमान और निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है । जिसे न इस लोक की और न परलोक की कोई अपेक्षा है, किसी के द्वारा चन्दन का लेप करने पर और किसी के द्वारा बसूले से छीलने पर, जिसके मन में लेप करने वाले पर राग-भाव और बसूले से छीलने वाले पर द्वैष-भाव नहीं होता, जो खाने में और अनशन व्रत करने में समभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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