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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) ४१५ (अनुचरितव्य) करना चाहिए । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) और योग सब अपने आप को पाने के साधन हैं। क्योंकि यही आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्याग में है, संवर में है और योग में है। " आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट हो जाता है कि नैतिक क्रियाएँ आत्मोपलब्धि ही हैं। व्यवहारनय से जिन्हें ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, निश्चयनय से वह आत्मा ही है। इस प्रकार नैतिक जीवन का अर्थ आत्म-साक्षात्कार या आत्मलाभ है। $ ४. जैन, बौद्ध और गोता के आचार-दर्शनों में परम साध्य जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में नैतिक जीवन का परमसाध्य या परमश्रेय निर्वाण या आत्मा की उपलब्धि ही माना गया है । भारतीय परम्परा में मोक्ष, निर्वाण, परमात्मा की प्राप्ति आदि जीवन के चरम लय या परमश्रेय के ही पर्यायवाची हैं । लेकिन हमें यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि भारतीय-परम्परा में मोक्ष या निर्वाण का तात्पर्य क्या है ? सामान्यतया मोक्ष या निर्वाण से हम किसी मरणोत्तर अवस्था की कल्पना करते हैं। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है। जिसे सामान्यतया मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है, वह तो उसका मरणोत्तर परिणाम मात्र है जो कि हमें जीवन-मुक्ति के रूप में इसी जीवन में उपलब्ध हो जाता है । वस्तुतः नैतिक जीवन का साध्य यही जीवन-मुवित है, जिसे व्यक्ति को यहीं और इसी जगत् में प्राप्त करना है। लोकोत्तर मुक्ति तो इसका अनिवार्य परिणाम है जो कि शरीर के छूट जाने पर प्राप्त हो जाती है । जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन मुक्ति के दो रूपों को स्वीकार करते हैं, जिन्हें हम जीवन-मुक्ति और विदेह-मुक्ति कह सकते हैं। जैन दर्शन में मुक्ति के दो रूप-जैन-परम्परा में मुक्ति के इन दो रूपों को भावमोक्ष और द्रव्य-मोक्ष कहा जा सकता है। जैन परम्परा में भावमोक्ष की अवस्था के प्रतीक अरिहन्त और द्रव्यमोक्ष की अवस्था के प्रतीक सिद्ध माने गये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में मोक्ष और निर्वाण शब्दों का दो भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है । उनमें मोक्ष को कारण और निर्वाण को उसका कार्य बताया गया है (उत्तरा०२८।३०)। इस सन्दर्भ में मोक्ष का अर्थ भाव-मोक्ष या रागद्वेष से मुक्ति है और द्रव्यमोक्ष का अर्थ निर्वाण या मरणोत्तर मुक्ति की प्राप्ति है। बौद्ध-परम्परा में दो प्रकार का निर्वाण-बौद्ध-परम्परा में भी दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं-१. सोपादिशेष निर्वाण धातु और २. अनुपादिशेष निर्वाण धातु । इतिवृत्तक में कहा गया है कि अनासक्त और चक्षुमगन भगवान् बुद्ध ने निर्वाण धातु को १. समयसार, १८; समयसारटीका, १५ १० ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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