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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
समन्वयात्मक समुच्चय बन जाते हैं । इसी समन्वयात्मक समुच्चय में हमारी आत्मा पूर्ण
रूप से अभिव्यक्त होती है । "
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भारतीय परम्परा पूर्णता का अर्थ थोड़ा भिन्न है । पाश्चात्य परम्परा में आत्मा (Self) का अर्थ व्यक्तित्व है और जब हम पाश्चात्य परम्परा में आत्मपूर्णता की बात कहते हैं तो उसका तात्पर्य है व्यक्तित्व की पूर्णता । व्यक्तित्व का तात्पर्य है शरीर और चेतना | लेकिन अधिकांश भारतीय दर्शन आत्मा को तात्त्विक 'सत्' के रूप में लेते हैं । अतः भारतीय चिन्तन अनुसार आत्म- पूर्णता का अर्थ अपनी तात्त्विक सत्ता की अथवा परमार्थ की उपलब्धि है । यों भारतीय परम्परा में आत्मपूर्णता का अर्थ आत्मा की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक शक्तियों की पूर्णता भी मान्य है | भारतीय चिन्तन के अनुसार मनुष्य के ज्ञान, भाव और संकल्प का अनन्त ज्ञान, अनन्त सोख्य (आनन्द) और अनन्त शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो जाना ही आत्म-पूर्णता है । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा परमात्मा बन जाता है। आत्मा की शक्तियों का अनावरण एवं पूर्ण अभिव्यक्ति यही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति है और यही आत्मपूर्णता है । (स) आत्म-साक्षात्कार
आत्मपूर्णता 'पर' या पूर्व अनुपस्थित वस्तु की उपलब्धि नहीं वरन् आत्मोपलब्धि ही है । यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसमें पाना कुछ भी नहीं, वरन् सब कुछ खो देना है | यह पूर्ण रिक्तता एवं शून्यता है । सब कुछ खो देने पर सब कुछ पा लिया जाता है । पूर्ण रिक्तता पूर्णता बन कर प्रकट हो जाती है । भौतिक स्तर पर 'पर' को पाकर 'स्व' को खोते हैं, लेकिन आध्यात्मिक जीवन में 'पर' को खोकर 'स्व' को पा जाते हैं । जैन दर्शन में इसे यह कहकर प्रकट किया गया है कि जितनी पर - परिणति या पुद्गल - परिणति है, उतना ही आत्म-विस्मरण है, 'स्व' को खोना है और जितना पर परिणति या पुद्गल - परिणति का अभाव है उतना ही आत्मरमण या 'स्व' की उपलब्धि है । जितनी 'पर' में आसक्ति होती है, उतने ही हम 'स्व' से दूर होते हैं । इसके विपरीत 'पर' में आसक्ति का जितना अभाव होता है, उतना ही हम 'स्व' या आत्मा के समीप होते हैं । जितनी मात्रा में वासनाएँ, अहंकार और चित्त-विकल्प कम होते हैं, उतनी ही मात्रा में आत्मोपलब्धि या आत्मसाक्षात्कार होता है | जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव हो जाता है, तो आत्मसाक्षात्कार आत्मपूर्णता के रूप में प्रकट हो जाता है ।
जैन दृष्टिकोण और आत्म-साक्षात्कार - जैन नैतिकता का साध्य भी आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार ही है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मोक्षकामी की आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति
१. एथिकल स्टडीज्, पृ० ११
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