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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन समन्वयात्मक समुच्चय बन जाते हैं । इसी समन्वयात्मक समुच्चय में हमारी आत्मा पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होती है । " ४१४ भारतीय परम्परा पूर्णता का अर्थ थोड़ा भिन्न है । पाश्चात्य परम्परा में आत्मा (Self) का अर्थ व्यक्तित्व है और जब हम पाश्चात्य परम्परा में आत्मपूर्णता की बात कहते हैं तो उसका तात्पर्य है व्यक्तित्व की पूर्णता । व्यक्तित्व का तात्पर्य है शरीर और चेतना | लेकिन अधिकांश भारतीय दर्शन आत्मा को तात्त्विक 'सत्' के रूप में लेते हैं । अतः भारतीय चिन्तन अनुसार आत्म- पूर्णता का अर्थ अपनी तात्त्विक सत्ता की अथवा परमार्थ की उपलब्धि है । यों भारतीय परम्परा में आत्मपूर्णता का अर्थ आत्मा की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक शक्तियों की पूर्णता भी मान्य है | भारतीय चिन्तन के अनुसार मनुष्य के ज्ञान, भाव और संकल्प का अनन्त ज्ञान, अनन्त सोख्य (आनन्द) और अनन्त शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो जाना ही आत्म-पूर्णता है । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा परमात्मा बन जाता है। आत्मा की शक्तियों का अनावरण एवं पूर्ण अभिव्यक्ति यही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति है और यही आत्मपूर्णता है । (स) आत्म-साक्षात्कार आत्मपूर्णता 'पर' या पूर्व अनुपस्थित वस्तु की उपलब्धि नहीं वरन् आत्मोपलब्धि ही है । यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसमें पाना कुछ भी नहीं, वरन् सब कुछ खो देना है | यह पूर्ण रिक्तता एवं शून्यता है । सब कुछ खो देने पर सब कुछ पा लिया जाता है । पूर्ण रिक्तता पूर्णता बन कर प्रकट हो जाती है । भौतिक स्तर पर 'पर' को पाकर 'स्व' को खोते हैं, लेकिन आध्यात्मिक जीवन में 'पर' को खोकर 'स्व' को पा जाते हैं । जैन दर्शन में इसे यह कहकर प्रकट किया गया है कि जितनी पर - परिणति या पुद्गल - परिणति है, उतना ही आत्म-विस्मरण है, 'स्व' को खोना है और जितना पर परिणति या पुद्गल - परिणति का अभाव है उतना ही आत्मरमण या 'स्व' की उपलब्धि है । जितनी 'पर' में आसक्ति होती है, उतने ही हम 'स्व' से दूर होते हैं । इसके विपरीत 'पर' में आसक्ति का जितना अभाव होता है, उतना ही हम 'स्व' या आत्मा के समीप होते हैं । जितनी मात्रा में वासनाएँ, अहंकार और चित्त-विकल्प कम होते हैं, उतनी ही मात्रा में आत्मोपलब्धि या आत्मसाक्षात्कार होता है | जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव हो जाता है, तो आत्मसाक्षात्कार आत्मपूर्णता के रूप में प्रकट हो जाता है । जैन दृष्टिकोण और आत्म-साक्षात्कार - जैन नैतिकता का साध्य भी आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार ही है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मोक्षकामी की आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति १. एथिकल स्टडीज्, पृ० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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