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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अपनी ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक क्षमताओं की पूर्णता चाहता है । सीमितता और अपूर्णता भी व्यक्ति के मन की वेदना है और वह सदैव ही इस वेदना से छुटकारा पाना चाहता है । उसकी सीमितता और अपूर्णता जीवन की वह प्यास है, जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है । जब तक आत्मपूर्णता को प्राप्त नहीं कर लिया जाता, तब तक पूर्ण समत्व नहीं होता; और जब तक पूर्ण समत्व नहीं होता, नैतिक पूर्णता भी सम्भव नहीं होती । नैतिक पूर्णता, आत्मपूर्णता और पूर्ण समत्व के पर्यायवाची ही हैं । काण्ट ने नैतिक विकास की दृष्टि से आत्मा की अमरता को अनिवार्य माना है । नैतिक पूर्णता आत्मपूर्णता की अवस्था में ही सम्भव है । यह पूर्णता या अनन्त तक प्रगति, केवल इस मान्यता पर निर्भर है कि व्यक्तित्व में उस पूर्णता को प्राप्त करने की क्षमता है और उस अनन्तता या पूर्णता तक पहुँचने के लिए उसकी स्थिरता भी अनन्त है । दूसरे शब्दों में आत्मा अमर है । काण्ट ने अनन्त की दिशा में नैतिक प्रगति के लिए आत्मा की अमरता पर बल दिया, लेकिन अरबन ने प्रगति को भी नैतिकता की एक स्वतन्त्र मान्यता कहा है । यदि नैतिक प्रगति की सम्भावना को स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो नैतिक जीवन का महान् उद्देश्य समाप्त हो जायेगा, और नैतिकता पारस्परिक सम्बन्धों की एक कहानी मात्र रहेगी ।
पाश्चात्य जगत् में नैतिक प्रगति का तात्पर्य सामाजिक जीवन की प्रगति है और भारतीय दर्शन में नैतिक प्रगति से तात्पर्य, वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास है । मोक्ष, निर्वाण या परमात्मा की उपलब्धि के रूप में नैतिक पूर्णता की प्राप्ति को सम्भव मानना नैतिक जीवन की दृष्टि से अति आवश्यक है । यदि नैतिक पूर्णता या परमश्रेय की प्राप्ति सम्भव नहीं है, तो नैतिक जीवन और नैतिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं रहेगा 1 नैतिक प्रगति के अन्तिम चरण के रूप में आत्मपूर्णता आवश्यक है ।
वस्तुतः हमारी चेतना में अपनी अपूर्णता का जो बोध है, वह स्वयं ही हमारे अन्त में निहित पूर्णता का संकेत है । हमें अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है, लेकिन यह अपूर्णता का स्पष्ट बोध बिना पूर्णता के प्रत्यय के सम्भव नहीं । यदि हमारी चेतना या आत्मा, अनन्त या पूर्ण न हो तो हमें अपनी - अपूर्णता का बोध भी नहीं हो सकता । ब्रेडले का कथन है कि " चेतना अनन्त है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमताएँ सान्त एवं सीमित हैं । लेकिन सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण होना आवश्यक है । जब हमारी चेतना यह सीमित या अपूर्ण है तो उसका यह सीमित होने का ज्ञान स्वयं इस सीमा को पार कर जाता है । इस प्रकार ब्रेडले 'स्व' में निहित पूर्णता का संकेत करते हैं ।" आत्मा पूर्ण है, यह बात भारतीय दर्शन के विद्यार्थी के लिए नयी नहीं है, लेकिन इस आत्मपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि हम पूर्ण हैं । पूर्णता हमारी क्षमता ( Capacity) है, योग्यता
ज्ञान रखती है कि वह सान्त,
१. एथिकल स्टडीज, अध्याय- २
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