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नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष)
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धार्मिक जीवन की ऐहिक समस्याओं का समाधान नहीं कर पाता और मात्र पारलौकिक जीवन की मधुरलोरी सुनाकर हमें वर्तमान की समस्याओं के प्रति तन्द्रित करता है, वह न तो सच्चा नैतिक दर्शन हो सक्ता है, न धर्म । मगधाधिपति अजातशत्रु ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही बुद्ध से यह प्रश्न किया था कि श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल क्या है ? बुद्ध ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया है वह भारतीय नैतिक दर्शन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। बुद्ध के समग्र कथन को संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है-"निर्दोष आचरण (शील-संवरण) से निर्भय जीवन, वासनाओं एवं वितर्कों के प्रहाण से प्रशान्त मनःस्थिति (चित्त समाधि) एवं एकाग्रता तथा प्रशान्त, एकाग्र, निर्मल (रागद्वेष के मल से रहित) निष्पाप एवं निश्चल चित्त से तत्त्व, वस्तुस्वरूप या परमार्थ का यथार्थ बोध प्राप्त हो जाता है। यही श्रामण्य का प्रत्यक्षफल है ।'' वस्तुतः सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र या सम्यक् शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा कर्म, ज्ञान, और भक्ति रूप नैतिक आचरण से जीवन के तीन पक्ष आचार, विचार और अनुभति में समत्व उत्पन्न होता है, जो इसी जीवन में मनुष्य को अभूतपूर्व शान्ति और अतुल आनन्द प्रदान करता है। क्योंकि अशान्ति, दुःख, वेदना एवं तनाव का कारण आसक्ति, राग या तृष्णा है। उसका प्रहाण होने पर जीवन में स्वाभाविक शान्ति और आनन्द का होना अनिवार्य है। भारतीय आचार-दर्शन अपने साधना मार्ग के रूप में इसी राग-द्वेष, आसक्ति या तृष्णा के प्रहाण का उपाय बताते हैं, जिससे व्यक्ति शाश्वत शान्ति और चिरसौख्य का आस्वादन कर सके । (ब) आत्म-पूर्णता
नैतिक जीवन का साध्य केवल समत्व का संस्थापन ही नहीं है, वरन् इससे भी अधिक है; और वह है आत्मपूर्णता की दिशा में प्रगति । क्योंकि जब तक अपूर्णता है समत्व के विचलन की सम्भावनाएँ भी हैं । अपूर्णता की अवस्था में सदैव ही चाह (Want) उपस्थित रहती है और जब तक कोई भी चाह बनी हुई है, समत्व नहीं हो सकता। कामना, वासना और चाह सभी असंतुलन को सूचक हैं, उनकी उपस्थिति में समत्व सम्भव नहीं होता। समत्व तो पूर्ण निष्काम एवं अनासक्त जीवन में सम्भव है । जब तक अपूर्णता है, कामना है; और जब तक कामना है, समत्व नहीं है । अतः पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता आवश्यक है। हमारे व्यावहारिक जीवन में भी हमारा प्रयत्न चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्षों के विकास के निमित्त होता है। अन्तश्चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील रहती है कि हम अपनी चेतना के इन तीनों पक्षों में देशकालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सकें। व्यक्ति
१. दीघनिकाय-सामञ्जफलसुत्त
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