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________________ ४१० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनी का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य है, लेकिन वास्तविक कारण तो व्यक्ति स्वयं ही है। अतः भारतीय आचारदर्शनों में नैतिक जीवन का कार्य उस आंतरिक संतुलन की स्थापना है। भारतीय आचार-दर्शनों में नैतिक जीवन का प्रमुख कार्य वातावरण और व्यक्ति के मध्य समायोजन बनाना नहीं, वरम् व्यक्ति के आन्तरिक जीवन में, उसके मन और बुद्धि में, इस संतुलन को बनाये रखना है। नैतिकता के क्षेत्र में आने वाला व्यक्ति का व्यवहार तो उसके विचारों का, उसके मानस का, बाद्य प्रकटीकरण मात्र है । अतः आवश्यकता तो मानसिक संतुलन की ही है ।। भारतीय चिन्तन, विशेषकर जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि नैतिक जीवन एक समायोजन पूर्ण, समरूप एवं संतुलित जीवन है; जिसका केन्द्र हमारे व्यक्तित्व के अन्दर है। यह आत्म-केन्द्रित समत्वपूर्ण जीवन ही नैतिक परमसाध्य है और नैतिकता एक कला के रूप में हमें वैसा जीवन जीना सिखाती है, जैसाकि हम देख चुके हैं । भारतीय आचार दर्शन हमें न केवल यह बताते हैं कि हमारे जीवन का आदर्श क्या है, वरन् यह भी बताते है कि इस आदर्श की उपलब्धि कैसे हो सकती है। संक्षेप में भारतोय आचार-दर्शनों के अनुसार जीवन का शुभत्व समत्व में निहित है । समत्वपूर्ण जीवन ही आदर्श जीवन है। पूर्ण समत्व की यह अवस्था जैनधर्म में वीतरागदशा के नाम से जानी जाती है। गीता इसी पूर्ण समत्व की स्थिति को स्थितप्रज्ञता कहती है, जबकि बौद्ध दर्शन में इसे ही अर्हतावस्था कहा जाता है । जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में जीवन का आदर्श यह आध्यात्मिक समत्व है और नैतिक जीवन इस आदर्श को आत्मसात् करने की प्रक्रिया है। जिस प्रकार के जीवनव्यवहार में यह समत्व बना रह सकता है, वही व्यवहार नैतिक है। नैतिकता इस समत्व के संस्थापन की कला है। गीता में इसी कला को समत्व-योग कहा गया है । जैन-दर्शन इसे सामाजिक साधना के नाम से अभिहित करता है और बौद्ध-दर्शन में उसे सम्यक्-समाधि कहा जाता है। भारतीय आचार-दर्शन जीवन के व्यवहार पक्ष को उपेक्षित कर किसी आध्यात्मिक या नैतिक आदर्श की कल्पना नहीं करते। उनका नैतिक आदर्श व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने की वस्तु है। गीता और जैन दर्शन में जिस मोक्ष और बौद्ध दर्शन में जिस निर्वाण की परिकल्पना है, वह तो पूर्ण समत्व की अवस्था है। वस्तुतः मोक्ष या निर्वाण मरणोत्तर स्थिति नहीं है। हम इस समत्व की साधना के मधुरफल का रसास्वादन, इसी जीवन में कर सकते हैं। बुद्ध और महावीर के युग में भी यह प्रश्न उठाया गया था कि नैतिक साधना का तात्कालिक फल क्या है ? क्योंकि जो लोग किसी मरणोत्तर अवस्था में विश्वास नहीं करते, उनके लिए इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना आवश्यक भी था-जो नैतिक दर्शन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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