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बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा) इस प्रकार सांदष्टिक निर्जरा-विशुद्धि से (दुःख का) अतिक्रमण होता है। भन्ते, भगवान् (बुद्ध) इस विषय में क्या कहते हैं" ? ___इस प्रकार अभय द्वारा, निर्जरा के तप-प्रधान निम्रन्थ-दृष्टिकोण को उपस्थित कर, निर्जरा के सम्बन्ध में भगवान बुद्ध की विचारसरणि को जानने की जिज्ञासा प्रकट की गई है। आयुष्मान् आनन्द इस सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, "अभय ! उन भगवान् (बुद्ध) के द्वारा तीन निर्जराविशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गयी हैं । हे अभय ! भिक्षु सदाचारी होता है, प्रातिमोक्ष-शिक्षा-पदों के नियम का सम्यक् पालन करनेवाला होता है, इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु काम-भोगों से दूर हो चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है । इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु आस्रवों का क्षय कर अनास्रव-चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी शरीर में जान कर, साक्षात् कर, प्राप्त कर, विहार करता है । वह नया कर्म नहीं करता और पुराने कर्मों (के फल) को भोगकर समाप्त कर देता है। यह सांदृष्टिक निर्जरा है, अकालिका ( देश और काल की सीमाओं से परे)।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा निर्जरा के प्रत्यय को स्वीकार तो कर लेती है, लेकिन उसके तपस्यात्मक पहलू के स्थान पर उसके चारित्रविशुद्धयात्मक तथा चित्त-विशुद्धयात्मक पहलू पर ही अधिक जोर देती है । बुद्ध की । दृष्टि में निर्जरा के लिये कठोर तपस्या आवश्यक नहीं है। आवश्यक है-सदाचार के पालन एवं सम्यक् ध्यान के द्वारा प्राप्त होनेवाली चित्त-विमुक्ति । बुद्ध निर्जरा के लिये उन्हीं बातों पर अधिक जोर देते हैं, जिन्हें जैन-दर्शन अन्तरंग तप कहता है। JE. गीता का दृष्टिकोण :
यद्यपि गीता में निर्जरा शब्द का प्रयोग नहीं है, तथापि जैन-दर्शन निर्जरा शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग करता है, वह अर्थ गीता में उपलब्ध है। जैन-दर्शन में निर्जरा शब्द का अर्थ पुरातन कर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया है। गीता में भी पुराने कर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया का निर्देश है । गीता में ज्ञान को पूर्व-संचित कर्म को नष्ट करने का साधन कहा गया है। गीताकार कहता है कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी पुरातन कर्मों को नष्ट कर देती है। हमें यहाँ जैन-दर्शन और गीता में स्पष्ट विरोध प्रतिमासित होता है। जैन-विचारणा तप पर जोर देती है, और गीता ज्ञान पर । लेकिन अधिक गहराई पर जाने पर यह विरोध बहुत मामूली रह जाता है, क्योंकि १. अंगुत्तरनिकाय, ३१७४.
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