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________________ ३९८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन .. इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचारदर्शन औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा पर बल देता है। जैन-तत्त्वज्ञान औपक्रमिक निर्जरा की धारणा के द्वारा यह स्वीकार करके चलता है कि कर्मों को उनके विपाक के पूर्व ही समाप्त किया जा सकता है। यह अनिवार्य नहीं है कि हमें अपने पूर्वकृत सभी कर्मों का फल भोगना ही पड़े। जैनदर्शन कहता है कि व्यक्ति तपस्या से अपने अन्दर वह सामर्थ्य उत्पन्न कर लेता है कि जिससे वह अपने कोटि-कोटि जन्मों के संचित कर्मों को क्षणमात्र में बिना फल भोगे ही समाप्त कर देता है। साधक के द्वारा अलिप्त भाव से किया हुआ तपश्चरण उसके कर्म-संघात पर ऐसा प्रहार करता है कि वह जर्जरित होकर आत्मा से अलग हो जाता है। औपक्रमिक निर्जरा के भेद-जैनाचार-दर्शन में तपस्या को पूर्व संचितकर्मों के नष्ट करने का साधन माना गया है।' जैन विचारकों ने इस औपक्रमिक अथवा अविपाक निर्जरा के १२ भेद किये हैं जो कि तप के ही १२ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अनशन या उपवास, २. ऊनोदरी-आहार के मात्रा में कमी, ३. भिक्षाचर्या अथवा वृत्ति संक्षेप-मर्यादित भोजन, ४. रसपरित्याग-स्वादजय, ५. काया क्लेश-आसनादि, ६. प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय-निरोध, कषाय-निरोध, क्रिया-निरोध तथा एकांत निवास, ७. प्रायश्चित्त-स्वेच्छा से दण्ड ग्रहण कर पाप-शुद्धि या दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप, ८. विनय-विनम्रवृत्ति तथा वरिष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना, ९. वैयावृत्य-सेवा, १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान और १२. व्युत्सर्ग-ममत्वत्य ग । __ इस प्रकार साधक संवर के द्वारा नवीन-कर्मों के आस्रव (आगमन) का निरोध तथा निर्जरा द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। ८. बौद्ध प्राचार-दर्शन और निर्जरा : बुद्ध ने स्वतन्त्र रूप से निर्जरा के सम्बन्ध में कुछ कहा हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं दिया, फिर भी अंगुत्तरनिकाय में एक प्रसंग है जहाँ बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द निर्ग्रन्थ-परम्परा में प्रचलित निर्जरा का परिष्कार करते हुए बौद्ध-दृष्टिकोण उपस्थित करते हैं। अभय लिच्छबि आनन्द के सम्मुख निर्जरासम्बन्धी जन-दृष्टिकोण इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं-"भन्ते ! ज्ञातृ-पुत्र निर्ग्रन्थ का कहना है कि तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है और कर्मों को न करने से नये कर्मों का घात हो जाता है। इस प्रकार कर्म का क्षय होने से दुःख का क्षय, दुःख का क्षय होने से वेदना का क्षय और वेदना का क्षय होने से सारे दुःख की निर्जरा होगी। १. उत्तराध्ययन, ३०१६. २. वही, ३०१७-८, ३०. .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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