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बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
ऋमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है । यह पहला प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत चला आ रहा है । हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं, लेकिन जब तक नवीन कर्मों का सृजन समाप्त नहीं होता, ऐसी निर्जरा से सापेक्ष रूप में कोई लाभ नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता रहे लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण-मुक्त नहीं हो पाता।
जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा सविपाक निर्जरा तो अनादिकाल से करता आ रहा है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं "यह चेतन आत्मा कर्म के विपाककाल मे सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेता है । क्योंकि कर्म जब अपना विपाक फल देते हैं, तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है।'
अतः साधना-मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान-युक्त हो कर्मास्रव का निरोध कर अपने आपको संवृत करे। संवर के अभाव में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है, किन्तु भव-परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे, यदि आत्मा संवर का आचरण करता हुआ भी इस यथाकाल होनेवाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा रहे तो भी वह शायद ही मुक्त हो सकेगा, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणी का कर्म-बन्ध इतना अधिक होता है कि वह अनेक जन्मों में भी शायद इस कर्म-बन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके । लेकिन इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के बन्ध की सम्भावना भी तो रहती है। अतः साधना-मार्ग के पथिक के लिये जो मार्ग बताया गया है, वह है, औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा का। महत्त्व इसी तपजन्य औपक्रमिक निर्जरा का है । ऋषिभाषित सूत्र में-ऋषि कहता है कि "संसारी आत्मा प्रतिक्षण नये कर्मों का बन्ध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है, लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्त्वपूर्ण) है ।"२ मुनि सुशीलकुमार जी लिखते हैं कि "बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ़ रहा है, किन्तु (जो) साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्धकर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है । ३ १. समयसार, ३८९.
२. इसिभासियम्, ९।१०. ३. जैनधर्म, पृ० ८७. .
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