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__ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
जैनाचार-दर्शन में तप का मात्र शारीरिक या बाह्य पक्ष ही स्वीकार नहीं किया गया है, वरन् उसका ज्ञानात्मक एवं आंतरिक पक्ष भी स्वीकृत है। जैन-दर्शन में तप के वर्गीकरण में स्वाध्याय आदि को स्थान देकर उसे ज्ञानात्मक स्वरूप दिया गया है। यही नहीं, उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग में अज्ञानतप की तीव्र निन्दा भी की गई है।' अतः जैन विचारक भी यह तो स्वीकार कर लेते हैं कि निर्जरा ज्ञानात्मक तप से होती है, अज्ञानात्मक तप से ही नहीं। वस्तुतः निर्जरा या कर्मक्षय के निमित्त ज्ञान और कर्म (तप) दोनों आवश्यक हैं। यही नहीं, तप के लिए ज्ञान को प्राथमिक भी माना गया है। निर्जरा में ज्ञान और तप का क्या स्थाव है, इसे जैन मुनि रत्नचन्द्रजी के निम्न पद्य से समझा जा सकता है
बाल (मूर्ख) तपस्वी सहते हैं जो कष्ट करोड़ों वर्ष महान । जितने कर्म नष्ट करते हैं उस तप से वह नर अज्ञान ।। ज्ञानीजन उतने कर्मों का क्षण भर में कर देते हैं नाश । ज्ञान निज.रा का कारण है मिलता इससे मुक्ति. प्रकाश ॥ अग्नि और जल जिस प्रकार से वस्त्र शुद्धि कर देते हैं।
उसी तरह से ज्ञान और तप कर्मों का क्षय करते हैं । पं० दौलतरामजी कहते हैं
कोटि जन्म तप तपैं ज्ञान बिन कर्म झरै जे ज्ञानी के दिन माहिं त्रिगुप्ति तै सहज टरै ते॥' इस प्रकार जैनाचार-दर्शन ज्ञान को निर्जरा का कारण तो मानता है, लेकिन एकांत कारण नहीं मानता। जैनाचार-दर्शन कहता है मात्र ज्ञान निर्जरा का कारण नहीं है। यदि गीता के उपर्युक्त श्लोक को आधार मानें तो जहाँ गीता का आचार-दर्शन ज्ञान को कर्मक्षय (निर्जरा) का कारण मानता है, वहाँ जैन-दर्शन ज्ञान समन्वित तप से कर्मक्षय (निर्जरा) मानता है, लेकिन जब गीताकार ज्ञान
और योग (कर्म) का समन्वय कर देता है, तो दोनों विचारणाएं एक दूसरे के निकट आ जाती हैं।
गीता पुरातन कर्मों से छूटने के लिये भक्ति को भी स्थान देती है। गीता के अनुसार यदि भक्त अपने को पूर्णतया निश्छल भाव से भगवान् के चरणों में समर्पित कर देता है तो भी वह सभी पुरातन पापों से मुक्त हो जाता है। गीता
१. (अ) उत्तराध्ययन, ९।४४. २. भावनाशतक, ७२-७३.
(ब) सूत्रकृतांग, १।८।२४. ३. छहढाला, ४।५.
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