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________________ कम-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ३६१ ३. प्रमाद-सामान्यतया समय का अनुपयोग या दुरुपयोग प्रमाद है । लक्ष्योन्मुख प्रयास के स्थान पर लक्ष्य विमुख प्रयास समय का दुरुपयोग है, जबकि प्रयास का अभाव अनुपयोग है । वस्तुतः प्रमाद आत्म-चेतना का अभाव है । प्रमाद पाँच प्रकार का माना गया है (क) विकथा-जीवन के लक्ष्य (साध्य) और उसके साधना मार्ग पर विचार नहीं करते हुए अनावश्यक चर्चाएँ करना । विकथाएँ चार प्रकार की है-(१) राज्य सम्बन्धी (२) भोजन सम्बन्धी, (३) स्त्रियों के रूप सौन्दर्य सम्बन्धी, और (४) देश सम्बन्धी। विकथा समय का दुरुपयोग है । (ख) कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनकी उपस्थिति में आत्मचेतना कुण्ठित होती है । अतः ये भी प्रमाद हैं। (a) राग-आसक्ति भी आत्म-चेतना को कुण्ठित करती है, इसलिए प्रमाद कहो जाती है। (३) विश्य-सेवन–पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन । (ङ) निद्रा-अधिक निद्रा लेना । निद्रा समय का अनुपयोग है । ४. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रमुख मनोदशाएँ, जो अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर १६ प्रकार की होती हैं, कषाय कही जाती हैं। इन कषायों के जनक हास्यादि ९ प्रकार के मनोभाव उपकषाय हैं । कषाय और उप. कषाय मिलकर पच्चीस भेद होते हैं । ५. योग-जैन शब्दावली में योग का अर्थ क्रिया है जो तीन प्रकार की हैं(१) मानसिक क्रिया (मनोयोग), (२) वाचिक क्रिया (वचनयोग) (३) शारीरिक क्रिया (काय योग)। यदि हम बन्धन के प्रमुख कारणों को और संक्षेप में जानना चाहें तो जैन परम्परा में बन्धन के मूलभूत तीन कारण राग ( आसक्ति ), द्वेष और मोह माने गये हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष इन दोनों को कर्म-बीज कहा गया है और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है । राग के कारण ही द्वेष होता है । जैन कथानकों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था। इस प्रकार राग एवं मोह ( अज्ञान ) ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं । आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं, आसक्त आत्मा ही कर्म बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है। इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो। लेकिन यदि राग ( आसक्ति ) का कारण जानना चाहे तो जैन १. उत्तराध्ययन, ३२७. २. समयसार, १५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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