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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है । यद्यपि मोह और राग-द्वेष सापेक्ष रूप में एकदूसरे के कारण बनते हैं । इस प्रकार द्वेष का कारण राग और राग का कारण मोह है। मोह तथा राग ( आसक्ति) परस्पर एकदूसरे के कारण हैं। अतः राग, द्वेष और मोह ये तीन ही जैन परम्परा में बन्धन के मूल कारण है । इसमें से द्वेष को जो राग ( आसक्ति ) जनित है, छोड़ देने पर शेष राग ( आसक्ति ) और मोह ( अज्ञान ) ये दो कारण बचते हैं, जो अन्योन्याश्रित हैं । बौद्ध दर्शन में बन्धन ( दुःख ) का कारण
जैन विचारणा को भाँति ही बौद्ध विचारणा में भी बन्धन या दुःख का हेतु अस्रव माना गया है। उसमें भी आस्रव ( आसव ) शब्द का उपयोग लगभग समान अर्थ में ही हुआ है। यही कारण है कि श्री एस० सी० घोषाल आदि कुछ विचारों ने यह मान लिया कि बौद्धों ने यह शब्द जैनों से लिया है। मेरी अपनी दृष्टि में यह शब्द तत्कालीन श्रमणपरम्परा का सामान्य शब्द था । बौद्धपरम्परा में आस्रव शब्द की व्याख्या यह है कि जो मदिरा ( आसव ) के समान ज्ञान का विपर्यय करे वह आस्रव है । दूसरे जिससे संसाररूपी दुःख का प्रसव होता है वह आस्रव है ।
जैनदर्शन में आस्रव को संसार ( भव ) एवं बन्धन का कारण माना गया है । बौद्धद न में आस्रव को भव का हेतु कहा गया है । दोनों दर्शन अर्हतों को क्षीणास्रव कहते हैं। बौद्धविचारणा में आस्रव तीन माने गये हैं-(१) काम, (२) भव और (३) अविद्या। लेकिन अभिधर्म में दृष्टि को भी आस्रव कहा गया है।' अविद्या और मिथ्यात्व समानार्थी हैं ही। काम को कषाय के अर्थ में लिया जा सकता है और भव को पुनर्जन्म के अर्थ में । धम्मपद में प्रमाद को आस्रव का कारण कहा गया है। बुद्ध कहते हैं, जो कर्तव्य को छोड़ता है और अकर्तव्य को करता है ऐसे मलयुक्त प्रमादियों के आस्रव बढ़ते हैं । इस प्रकार जैन विचारणा के समान बौद्ध विचारणा में भी प्रमाद आस्रव का कारण है।
बौद्ध और जैन विचारणाओं में इस अर्थ में भी आस्रव के विचार के सम्बन्ध में मतैक्य है कि आस्रव अविद्या ( मिथ्यात्व ) के कारण होता है। लेकिन यह अविद्या या मिथ्यात्व भी अकारण नहीं, वरन् आस्रवप्रसूत है। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या ( मिथ्यात्व ) से आस्रव और आरूव से अविद्या ( मिथ्यात्व ) की परम्परा परस्पर सापेक्षरूप में चलती रहती है । बुद्ध ने जहाँ अविद्या को आस्रव का कारण माना, वहां यह भी बताया कि आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है। एक के अनुसार आस्रव चित्त-मल है, दूसरे के अनु
१. संयुत्तनिकाय, ३६।८,४३।७।३, ४५१५।१०. देखिये-बौद्ध धर्मदर्शन, पृ० २४५. २. धम्मपद, २६२, ३. मज्झिमनिकाय, १४१६.
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