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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ३. हिंसा क्रिया-अमुक व्यक्ति ने मुझे अथवा मेरे प्रियजनों को कष्ट दिया है अथवा देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना।
४. अकस्मात् क्रिया-शीघ्रतावश अथवा अनजाने में होनेवाला पाप-कर्म; जैसे घास काटते काटते जल्दी में अनाज के पौधे को काट देना ।
५. दृष्टि विपर्यास क्रिया-मतिभ्रम से होनेवाला पाप-कर्म; जैसे चौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड देना, मारना आदि। जैसे दशरथ के द्वारा मृग के भ्रम में किया गया श्रवणकुमार का वध ।
६. मृषा क्रिया-झूठ बोलना । ७. अदत्तादान क्रिया-चौर्य कर्म करना ।
८. अध्यात्म क्रिया-बाह्य निमित्त के अभाव में होनेवाले मनोविकार अर्थात् बिना समुचित कारण के मन में होनेवाला क्रोध आदि दुर्भाव ।
९. मान क्रिया-अपनी प्रशंसा या घमण्ड करना । १०. मित्र क्रिया-प्रियजनों, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू. पत्नी आदि को कठोर दण्ड
देना।
११. माया क्रिया-कपट करना, ढोंग करना । १२. लोभ क्रिया-लोभ करना ।
१३. ईर्यपथिकी क्रिया-अप्रपत्त, विवेकी एवं संयमी व्यक्ति की गमनागमन एवं आहार-विहार की क्रिया। .. वैसे मूलभूत आस्रव योग ( क्रिया) है। लेकिन यह समग्र क्रिया-व्यापार भी स्वतःप्रसूत नहीं है। उसके भी प्रेरक सूत्र हैं जिन्हें आस्रव-द्वार या बन्ध हेतु कहा गया है । समवायांग, ऋषिभाषित एवं तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या ५ मानी गयी है (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग (क्रिया)। समयसार में इनमें से ४ का उल्लेख मिलता है, उसमें प्रमाद का उल्लेख नहीं।' उपर्युक्त पाँच प्रमुख आस्रव-द्वार या बन्धहेतुओं को पुनः अनेक भेद-प्रभेदों में वर्गीकृत किया गया है। यहाँ केवल नामनिर्देश करना पर्याप्त है । पाँच आस्रव द्वारों या बन्धहेतुओं के अवान्तर भेद इस प्रकार हैं
१. मिथ्यात्व-मिथ्यात्व अयथार्थ दृष्टिकोण है जो पांच प्रकार का है(१) एकान्त, (२) विपरीत, (३) विनय, (४) संशय और (५) अज्ञान ।
२. अविरति-यह अमर्यादित एवं असंयमित जीवन प्रणाली है। इसके भी पाँच भेद हैं-(१) हिंसा, (२) असत्य, (३) स्तेयवृत्ति, (४) मैथुन (काम वासना) और (५) परिग्रह (आसक्ति)। १. (अ) समवायांग, ५।४; (ब) इसियभासिय, ६।५; (स) तत्त्वार्थ सूत्र, ८।१. २. समयसार, १७१.
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