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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ( स्थिति ) और तीव्रता ( अनुभाग ) को बढ़ाया जा सकता है, उसी प्रकार उसे कम भी किया जा सकता है और यह कम करने की क्रिया अपवर्तना कहलाती है।
__५. सत्ता-कर्मों का बन्ध हो जाने के पश्चात् उनका विपाक भविष्य में किसी समय होता है । प्रत्येक कर्म अपने सत्ता-काल के समाप्त होने पर ही फल ( विपाक ) दे पाता है । जितने समय तक काल-मर्यादा परिपक्व न होने के कारण कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध बना रहता है, उस अवस्था को सत्ता कहते हैं।
६. उदय-जब कर्म अपना फल ( विपाक ) देना प्रारम्भ कर देते हैं, उस अवस्था को उदय कहते हैं । जैन दर्शन यह भो मानता है कि सभी कर्म अपना फल प्रदान तो करते हैं लेकिन कुछ कर्म ऐसे भी हाते हैं जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते हैं और निजरित हो जाते हैं । जैन दर्शन में फल देना और फल की अनुभूति होना ये अलग तथ्य माने गये हैं । जो कर्म बिना फल की अनुभूति कराये निर्जरित हो जाग है, उसका उदय प्रदेशोदय कहा जाता है। जैसे, आपरेशन करते समय अचेतन अवस्था में शल्य-क्रिया की वेदना की अनुभूति नहीं होती । कषाय के अभाव में ईर्यापथिक क्रिया के कारण जो बन्ध होता है उसका मात्र प्रदेशोदय होता है । जो कर्म-परमाणु अपनी फलानुभूति करवाकर आत्मा से निर्जरित होते हैं, उनका उदय विपाकोदय कहलाता है। विपाकोदय की अवस्था में तो प्रदेशोदय होता ही है, लेकिन प्रदेशोदय की अवस्था में विपाकोदय हो ही, यह अनिवार्य नहीं है । · ७. उदीरणा-जिस प्रकार समय से पूर्व कृत्रिम रूप से फल को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार नियत काल के पूर्व ही प्रयासपूर्वक उदय में लाकर कर्मों के फलों को भोग लेना उदीरणा है । साधारण नियम यह है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय या भोग चल रहा हो, उसकी सजातोय कर्म-प्रकृति की उदीरणा सम्भव है ।
८. उपशमन-कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना या उन्हें किसी काल-विशेष के लिए फल देने में अक्षम बना देना उपशमन है । उपशमन मे कर्म को ढंकी हुई अग्नि के समान बना दिया जाता है । जिस प्रकार राख से दबी हुई अग्नि उस आवरण के दूर होते ही पुनः प्रज्वलित हो जातो है, उसी प्रकार उपशमन को अवस्था के समाप्त होते ही कर्म पुनः उदय में आकर अपना फल देता है । उपशमन में कर्म की सत्ता नष्ट नहीं होती है, मात्र उसे काल-विशेष तक के लिए फल देने में अक्षम बनाया जाता है।
९. निर्धात्त-कर्म की वह अवस्था निधत्ति है जिसमें कर्म न अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं। लेकिन कर्मों की समय-मर्यादा और विपाक-तीव्रता ( परिमाण ) को कम-अधिक किया जा सकता है अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव हैं।
१०. निकाचना-कर्मों का बन्धन इतना प्रगाढ़ होना कि उनकी काल-मर्यादा एवं तीव्रता ( परिमाण ) में कोई परिवर्तन न किया जा सके, न समय के पूर्व उनका भोग
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