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कर्म-सिद्धान्त
३.१.
ही किया सके, निकाचना कहा जाता है । इसमें कर्म का जिस रूप में बन्धन हुआ होता है उसी रूप में उसको अनिवार्यतया भोगना पड़ता है ।
कर्म की अवस्थाओं पर बौद्ध धर्म की दृष्टि से विचार एवं तुलना
बौद्ध कर्म विचारणा में जनक, उपस्थम्भक, उपपीलक और उपघातक ऐसे चार कर्म माने गये हैं । जनक कर्म दूसरा जन्म ग्रहण करवाते हैं, इस रूप में वे सत्ता की अवस्था से तुलनीय हैं । उपस्थम्भक कर्म दूसरे कर्म का फल देने में सहायक होते हैं, ये उत्कर्षण की प्रक्रिया के सहायक माने जा सकते हैं । उपपीलक कर्म दूसरे कर्मों की शक्ति को क्षीण करते हैं, ये अपवर्तन की अवस्था से तुलनीय हैं । उपघातक कर्म दूसरे कर्म का विपाक रोककर अपना फल देते हैं. ये कर्म उपशमन की प्रक्रिया के निकट हैं । बौद्ध दर्शन में कर्म-फल के संक्रमण की धारणा स्वीकार की गयी है । बौद्ध दर्शन यह मानता है कि यद्यपि कर्म ( फल ) का विप्रणाश नहीं है, तथापि कर्म फल का सातिक्रम हो सकता है । विपच्यमान कर्मों का संक्रमण हो सकता है । विपच्यमान कर्म के हैं जिनको बदला जा सकता है अर्थात् जिनका मातिक्रमण ( संक्रमण ) हो सकता है, यद्यपि फल भोग अनिवार्य है । उन्हें अनियत - वेदनीय किन्तु नियतविपाककर्म भी कहा जाता है । बौद्ध दर्शन का नियतवेदनीय नियतविपाक कर्म जैन दर्शन के निकाचना से तुलनीय है ।
कर्म की अवस्थाओं पर हिन्दू आचग्रदर्शन की दृष्टि से विचार एवं तुलना
कर्मों की सत्ता, उदय, उदीरणा और उपशमन इन चार अवस्थाओं का विवेचन संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण
समस्त कर्म संचित कर्म
हिन्दू आचारदर्शन में भी मिलता है । वहाँ कर्मों की ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं। वर्तमान क्षण के पूर्व तक किये गये संचित कर्म कहे जाते हैं, इन्हें ही अपूर्व और अदृष्ट भी कहा गया है । के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है उसे ही प्रारब्ध प्रकार पूर्वबद्ध कर्म के दो भाग होते हैं । जो भाग अपना फल है वह प्रारब्ध ( आरब्ध ) कर्म कहलाता है शेष भाग जिसका हुआ है अनारब्ध ( संचित ) कहलाता है । लोकमान्य तिलक ने स्वतन्त्र अवस्था-भेद नहीं माना है । वे कहते हैं कि यदि उसका पाणिनिसूत्र के अनुसार भविष्यकालिक अर्थ लेते हैं, तो उसे अनारब्ध कहा जायेगा । २ तुलना की दृष्टि से कर्म की अनारब्ध या संचित अवस्था हो 'सत्ता' को अवस्था कही जा सकती है । इसी प्रकार प्रारब्ध कर्म की तुलना कर्म की उदय अवस्था से की जा सकती है । कुछ लोग नवीन कर्म-संचय को दृष्टि से क्रियमाण नामक स्वतन्त्र अवस्था मानते हैं । क्रियमाण: कर्म की तुलना जैन विचारणा के बन्धमान कर्म से की जा सकती है । डा० टॉटिया
कर्म कहते हैं । इस देना प्रारम्भ कर देता फलभोग प्रारम्भ नहीं 'क्रियमाण कर्म' ऐसा
१. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० २७५ । २. गीतारहस्य, पृ० २७४.
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