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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन है। जो अपने को अनुशासित रखेगा वह सुखपूर्वक विहार करेगा क्योंकि व्यक्ति स्वयं ही अपना स्वामी है, स्वयं ही अपना साध्य है। इस प्रकार सभी भारतीय आचारदर्शन आत्मस्वातन्त्र्य एवं आत्मनिर्धारणवाद का समर्थन करते हुए व्यक्ति को आत्मनिर्धारण से आत्मस्वातन्त्र्य की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । यह स्मरण रखने की बात है कि पाश्चात्य चिन्तन का इच्छा-स्वातन्त्र्य आत्मस्वातन्त्र्य नहीं है । भारतीय चिन्तन
और विशेष रूप में जैन चिन्तन भी आत्मस्वातन्त्र्य को तो स्वीकार करता है, लेकिन इच्छा-स्वातन्त्र्य को नहीं । इच्छा स्वतन्त्र नहीं होती क्योंकि वह अकारण नहीं, सकारण है। किसी भी इच्छा की उत्पत्ति के लिए तत्सम्बन्धी कर्मवर्गणाओं का होना आवश्यक है। उस इच्छा को करनेवाली चेतना या आत्मा ही वास्तव में स्वतन्त्र है । स्वतन्त्रता चेतना या आत्मा का स्वरूप लक्षण है, वह तत्त्व का स्वरूप है, हमारा तात्त्विक अधिकार है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमें उपलब्ध भी है।
रूसो ने कहा है कि मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होता है, परन्तु चारों और जंजीरों में जकड़ा नजर आता है । यह कथन राजनैतिक दृष्टिकोण से सही है, परन्तु नैतिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से सत्य कुछ दूसरा ही प्रतीत होता है । वहाँ यह कहना अधिक युक्तिसंगत और सत्य होगा कि मनुष्य पैदा परतन्त्र होता है, परन्तु वह चाहे तो स्वतन्त्र हो सकता है ।
स्वतन्त्रता हमारा स्वभाव है। 'हम स्वतन्त्र है' इसकी अपेक्षा यह कहना अधिक उपयुक्त है कि 'हममें स्वतन्त्र होने की सम्भावनाएँ हैं और नैतिक जीवन की सारी प्रक्रिया उसी स्वतन्त्रता को प्रकट करने के लिए है।' महाभारत में इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर शब्दों में यह कहकर प्रकट किया गया है कि यह स्वतन्त्र आत्मा स्वतन्त्रता के द्वारा स्वतन्त्रता को प्राप्त कर लेता है । अर्थात् यह जीवात्मा जो अपने तात्त्विक स्वरूप में स्वतन्त्र है, आमक्तिरूपी बन्धन से स्वतन्त्र होकर सच्ची स्वतन्त्रता या मुक्ति का लाभ कर लेता है। हमारा वर्तमान व्यक्तित्व स्वतन्त्रता और निर्धारणता का मिश्रण है, लेकिन हम निर्धारणता को समाप्त कर सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र हो सकते हैं । डा. राधाकृष्णन् लिखते हैं कि जीवन ताश के पत्तों के खेल की तरह है । पत्ते हमें बाँट दिये जाते हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे । इस सीमा तक नियतिवाद का शासन है। परन्तु हम खेल को बढ़िया ढंग से या खराब ढग से खेल सकते हैं। हो सकता है कि एक कुशल खिलाड़ी के पास बहुत खराब पत्ते आये हों और फिर भी वह खेल में जीत जाये। यह भी सम्भव है कि एक खराब खिलाड़ी के पास अच्छे पत्ते आये हों और फिर भी वह खेल का नाश करके रख दे । हमारा जीवन परवशता और स्वतन्त्रता, दैवयोग और चुनाव का मिश्रण है । अपने चुनाव का समुचित रूप से प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सब तत्त्वों पर नियन्त्रण कर सकते हैं और प्रकृति के नियतिवाद को बिलकुल समाप्त कर सकते हैं।"
__ स्वभावतः हम स्वतंत्र है और हमने स्वयं अपनी ही वासनाओं एवं आसक्तियों के बंधन खड़े कर लिये हैं । हम उन बंधनों को समाप्त कर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। → १. धम्मपद, १६५. २, वही, १६०. ३. नीति की ओर, पृ० ५५. ४. महाभारत, शान्ति पर्व, ३०८।२७ ३०. ५. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २९२; भगवद्गीता ( रा०), पृ० ५३. ।
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