________________
२९०
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
के साथ रहती है। अज्ञातता अनिश्चितता है और यदि भविष्य अज्ञात है तो उसकी व्याख्या नियतिवाद के द्वारा सम्भव ही नहीं है । भविष्य के सम्बन्ध में नियतिवादी धारणा निराशा, नीरसता और निष्क्रियता के द्वारा प्रगति के सारे द्वारों को अवरुद्ध कर देती है। भावी को सुखद एवं समृद्ध बनाने के लिए पुरुषार्थवाद के प्रति निष्ठा आवश्यक है । जीवन का स्वर्णिम सूत्र है-भूत के सम्बन्ध में भाग्यवादी ( नियतिवादी ) रहो और भावी के सम्बन्ध में पुरुषार्थवादी ।
१२. कर्म-नियम और आत्मशक्ति ___ कर्म-नियम और आत्मा में कौन बलवान् है, यह प्रश्न प्राचीनकाल से ही विचारणीय रहा है। यद्यपि कर्म हमारे संस्कारों और हमारे जीवन जीने के ढंग को प्रभावित करता है; लेकिन कर्मों का कर्ता आत्मा है। आत्मा स्वयं . ही अपने कर्मों से बद्ध होता है, अतः यह मानना होगा कि उस बन्धन से मुक्त होने की सामर्थ्य भी आत्मा में ही है। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि अनन्त गगन में मेघों की कितनी ही घनघोर घटा छा जाए, फिर भी वे सूर्य की प्रभा का सर्वथा विलोप नहीं कर सकतीं। बादलों में सूर्य को आच्छादित करने की शक्ति तो है, किन्तु उसके आलोक को सर्वथा विलुप्त करने की शक्ति उनमें नहीं है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है । कर्म में आत्मा के सहज स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करने की शक्ति है इसमें जरा भी असत्य नहीं है, पर आत्मा को आच्छादित करनेवाले कर्म कितने ही प्रगाढ़ क्यों न हों उनमें आत्मा के एक भी गुण को मूलतः नष्ट करने की शक्ति नहीं है। जैसे सूर्य स्वयं मेघों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर वही सूर्य अपनी शक्ति से उन्हें छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। इसी प्रकार आत्मा भी स्वयं कर्मों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर स्वयं ही उन कर्मों को निर्जरा के द्वारा छिन्न-भिन्न भी कर डालता है । ' वस्तुतः कर्मशक्ति महत्त्वपूर्ण है, लेकिन वह आत्मशक्ति की अपेक्षा अधिक बलवान् नहीं है। कर्म संकल्पजन्य हैं और इसलिए वे आत्मा से हो उत्पन्न होते है । कर्मों को जो भी कुछ शक्ति मिलती है, इसके मूल में हमारे ही संकल्प होते हैं । अतः यह मानना युक्तिसंगत नहीं कि कर्मशक्ति आत्मशक्ति से बलवान् है । आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों की नियामकता से ऊपर उठ सकता है। कुछ लोगों की यह मान्यता है कि कर्मावरण के हल्के होने पर आत्म-विशुद्धि होती है, लेकिन यह धारणा भ्रान्त है । अमरमुनि जो लिखते हैं कि कर्म टूटे तो आत्मा विशुद्ध हो, यह सिद्धान्त नहीं है; बल्कि सिद्धान्त यह है कि आत्मा का शुद्ध पुरुषार्थ जागे, तो कर्म हल्के हों। इस प्रकार कर्म-नियम के ऊपर आत्मशक्ति का स्थान है । १३. आत्म-निर्धारणवाद
विभिन्न नियतिवादी तत्त्व हमारे व्यक्तित्व के निर्माण एवं निर्धारण के बाह्य कारण या निमित्त अवश्य हैं, लेकिन उनको स्वरूप प्रदान करनेवाला केन्द्रीय तत्त्व १. समाज और संस्कृति, पृ० १६८.
२. वही, पृ० १६६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org