________________
मात्मा को स्वतन्त्रता
२८९
वह तो आत्म और अनात्म का एक विशिष्ट संयोग है। मानवीय जगत् में जिस रूप में अनात्म आत्म पर हावी रहता है, उसी स्थिति तक आत्म-तत्त्व पर नियतिवाद का अधिकार रहता है। लेकिन आत्म चाहे अनात्म से कितना ही दबा हुआ हो, वह कभी भी अनात्म नहीं हो जाता है और इसीलिए उसमें स्वतन्त्रता की सम्भावनाएँ चाहे वह कितनी ही धूमिल क्यों न हों, समाप्त नहीं होती हैं। डा० राधाकृष्णन् लिखते हैंकर्ता ( आत्मा) का अर्थ है स्वतन्त्रता या अनिर्धारिता। जीवन अपनी आत्मसीमितता में अपनी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्वतःचालितता में सच्चे वर्ता ( शुद्धात्मा ) का विकृत रूप है। कर्म के नियम पर आत्मा की स्वाधीनता को पुष्टि द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है--विश्व की वे शक्तियाँ जिनका मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है, निम्नतर प्रकृति की प्रतिनिधि हैं, परन्तु उसकी ( मनुष्य को ) आत्मा प्रकृति ( जैन परिभाषा में कर्म-प्रकृति ) के घेरे को तोड़ सकती है और ब्रह्म ( शुद्धात्मा ) के साथ अपने सम्बन्ध को पहचान सकती है। हमारा बन्धन किसी विजातीय तत्त्व पर आश्रित रहने में है। मनुष्य अच्छे और बुरे में चुनाव कर सकने की ( निहित ) स्वतन्त्रता से ऊपर उठकर उस उच्चतर स्वतन्त्रता तक पहुँच सकता है । -गीता में व्यक्ति की भले और बुरे का चुनाव कर सकने की स्वाधीनता पर और उम ढंग पर जिससे कि वह इम स्वतन्त्रता का प्रयोग करता है, जोर दिया गया है-प्रकृति निरपेक्ष रूप में सब बातों का निर्धारण नहीं कर देती है । कर्म एक दशा है, भवितव्यता नहीं।' ११. सम्यक जीवन-दृष्टि के लिए दोनों दृष्टिकोण अपेक्षित
वस्तुतः सफल जोवन संचालन के लिए नियति और पुरुषार्थ, दोनों आवश्यक हैं । नियतिवाद जीवन के अतोत-पक्ष को समझाने की दृष्टि है तो पुरुषार्थवाद जीवन के भावी पक्ष को समझने की दृष्टि है । पुरुषार्थवाद तो भावी को समुज्ज्वल बनाने की कला एवं विधि भी है। नियतिवाद के द्वारा हमें मात्र अपने अतीत को समझने की कोशिश करना चाहिए। नियतिवाद यह बता सकता है कि जो कुछ हो चुका है उन परिस्थितियों में वही होना था। दुर्भाग्यपूर्ण भूत के सम्बन्ध में यही सिद्धान्त हमारे जोवन की सांत्वना बन सकता है । भूत के सम्बन्ध में पुरुषार्थवाद यह सोचने को बाध्य करेगा कि यदि कार्य अमुक प्रकार से किया होता तो सफलता मिल जाती, लेकिन भूत की स्थिति में परिवर्तन करना तो वर्तमान के पुरुषार्थ अधिकार में नहीं है । वस्तुतः भूत तो वह तीर है जो हाथ से छूट चुका है। अतः भूत के सम्बन्ध में पुरुषार्थवादी दृष्टि पश्चात्ताप के सिवाय कुछ नहीं दे सकती। वर्तमान में खड़े होकर भूत की ओर देखने के लिए नियतिवादी दृष्टि ही उचित है । भूत बदला नहीं जा सकता, उसके लिए निर्यातवादी दृष्टि पर्याप्त है । लेकिन भावी अज्ञात होता है, उसके सम्बन्ध में कुछ भी पूर्व कथन नहीं किया जा सकता। जब तक व्यक्ति में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने असीम अग्रिम भविष्य को देख सके, उसे भावी के सम्बन्ध में नियतिवादी किंवा भाग्यवादी धारणा बनाने का कोई अधिकार नहीं । नियतिवाद निश्चितता है। निश्चितता ज्ञातता १. भगवद्गीता, पृ० ५१-५२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org