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________________ २८८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन है जिसके अनुसार ही ईश्वर कार्य करता है। ईश्वर तो मात्र कर्म-नियम के अधिष्ठाता के रूप में ही उसका नियामक कहा जा सकता है। तिलक भी गीता में ईश्वर को इसी रूप में नियामक मानते हैं।' निष्कर्ष यह है कि गीता में यदि कोई नियतिवादी तत्त्व है तो वह कर्म का नियम ही है और प्राणी-व्यवहार का नियमन इसी के आधार पर होता है। लेकिन यदि हम कर्म-नियम को भी निरपेक्ष रूप में व्यक्ति के व्यवहार का नियन्त्रक तत्त्व मान लेते हैं तो भी नियतिवाद के पंजे में आ जाते हैं। कर्म-विपाक का नियम जिसे गीता में ईश्वर की प्रकृति या माया अथवा ईश्वरीय नियम कहा गया है, वस्तुतः क्या है ? उसका व्यक्ति पर कितना शासन है यह जानना आवश्यक होगा। गीता के अनुसार व्यक्ति कर्म-नियम में अपनी इच्छा से कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। फिर भी प्रश्न उठता है कि वह प्राणियों का किस अर्थ में नियमन करता है ? गीता में कर्म को जो प्रकृति या माया कहा गया है उसका गहन अर्थ यह है कि वह जड़ है, और इसलिए प्रकृति या माया का नियम जड का नियम है। जड़ के नियम को ही हम विज्ञान की भाषा में कार्य-कारण का नियम कहते हैं और कर्म-सिद्धान्त का नियम भी कार्य-कारण सिद्धान्त का ही एक रूप है । ऐसी स्थिति में कर्म-सिद्धान्त को जड़ जगत का नियम मान लेने पर उसे प्राणी-जगत् पर लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि जड़ और चेतन भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। गीता जब आत्मा के द्वारा आत्म के उत्थान की बात कहती है (६५ ) तब वह निश्चित रूप से यही इंगित करती है कि इच्छा-स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त ही चेतन-जगत् का सिद्धान्त है । अनात्म ( जड़ ) और आत्म ( चेतन ) दो भिन्न सत्ताएँ हैं और दोनों के स्वतन्त्र नियम हैं। जड़ जगत् के नियम के रूप में ही नियतिवाद पनपता है । यद्यपि वर्तमान वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर तो परमाणु जगत में भी नियतता का नियम पूरी तरह लागू नहीं होता । परमाणुओं की आन्तरिक गति में भी अनियतता होती है। फिर भी चेतन-जगत् का नियम तो इच्छा-स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त ही कहा जा सकता है जिसमें पुरुषार्थ की धारणा बलवती होती है। डॉ० राधाकृष्णन् भी लिखते हैं, 'प्रकृति नियतिवाद की व्यवस्था है। लेकिन वह रुद्ध व्यवस्था नहीं है। आत्मा की शक्तियाँ उसे प्रभावित कर सकती हैं, उसको गति की दिशा को मोड़ सकती हैं। कर्म का नियम अनात्म ( जड़ ) के क्षेत्र में पूरी तरह लागू होता है, जहाँ प्राणीशास्त्रीय और सामाजिक अनुवांशिक ता दृढ़ता के साथ जमी हुई है, किन्तु कर्ता ( व्यक्ति ) में स्वाधीनता की सम्भावना है, प्रकृति के नियतिवाद पर, संसार की अनिवार्यता ( बाध्यता ) पर, विजय पाने की सम्भावनाएँ हैं। ___ नैतिकता का जगत् न पूर्णतया जड़ है और न पूर्णतया चेतन है। नैतिक कर्ता के रूप में जीव ( बद्धात्मा ) न तो शुद्धरूप से आत्म है और न शुद्ध रूप से अनात्म, १. गीतारहस्य, अध्याय १० ( कर्म-विपाक और आत्म-स्वातन्त्र्य ). २. भगवद्गीता ( रा०), पृ० ५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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