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________________ आत्मा को स्वतन्त्रता २८५: के रूप में नियतिवाद को अवश्य स्वीकृत करता है । वह हेतु और उनके फल के अनिवार्य सम्बन्ध को स्पष्ट कर वर्तमान दुःख का कारण प्रस्तुत करता है । ? दुःख का प्रतीक जरा-मरण है । जरा-मरण क्यों होता है ? जाति ( जन्म ) के कारण । जन्म क्यों होता है ? भव ( जन्मदायक कर्म ) के कारण । जन्मदायक कर्म क्यों होते हैं ? उपादान ( आसक्ति ) के कारण । आसक्ति क्यों होती है ? तृष्णा ( इच्छा ) के कारण । तृष्णा क्यों होती है वेदना अर्थात् अनुभूति के कारण | वेदना क्यों होती है ? विषयों का स्पर्श या सम्पर्क होने के कारण । स्पर्श क्यों होता है ? छः इन्द्रियों ( षडायतन ) के रहने के कारण । छः इन्द्रियाँ क्यों होती नाम-रूप अर्थात् मन और शरीर के कारण । नाम रूप क्यों होता है ? इसकी उत्पत्ति के क्षण विज्ञान ( चिन्ता ) रहने के कारण । विज्ञान क्यों होता है ? संस्कार ( पूर्वजन्म के अनुभव ) के कारण | संस्कार क्यों होते हैं ? अविद्या ( पूर्वजन्म की दुःख -दशा ) के कारण । यद्यपि इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद हेतु और फल के अनिवार्य सम्बन्ध को अभिव्यक्त अवश्य करता है, लेकिन वह कभी भी यह नहीं कहता कि इस हेतु फल- परम्परा का निरोध नहीं किया जा सकता, वरन् इसके विपरीत वह तो यह कहता है कि इस हेतुफलपरम्परा का निरोध किया जा सकता है द्वितीय और चतुर्थ आर्यसत्य के मध्य निरुध्य और निरोधक का सम्बन्ध माना गया है । अष्टांगिक मार्ग प्रतीत्यसमुत्पाद के दश निदानों का निम्न रूप में निरोध करता हैनिरोधक । www.y आर्य अष्टांगिक मार्ग १. सम्यक् दृष्टि २. सम्यक् संकल्प ३. सम्यक् वाक् ४. सम्यक् कर्मान्त ५. सम्यक् आजीव ६. सम्यक् व्यायाम ७. सम्यक स्मृति ८. सम्यक् समाधि निरुध्य दश निदान अविद्या संस्कार विज्ञान Jain Education International नाम-रूप और षडायतन स्पर्श वेदना तृष्णा और उपादान भव और जाति इस प्रकार सारी हेतुफलपरम्परा की श्रृंखला ही समाप्त की जा सकती है और व्यक्ति निर्वाणलाभ प्राप्त कर सकता है। साथ ही प्रतीत्यसमुत्पाद का प्रत्येक अंग ( धर्म ) कोई बाह्य तथ्य नहीं, वरन् व्यक्ति की अपनी ही अवस्थाएँ हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद कर्मसिद्धान्त का ही एक रूप है और इस अर्थ में उसमें निर्धारक तत्त्व बाह्य नहीं आन्तरिक हैं । कर्मसिद्धान्त के रूप में वह आत्मनिर्धारणवाद ही सिद्ध होता है जो बौद्ध नैतिकता को यदृच्छावाद ( हेतुवाद ) और नियतिवाद दोनों के दोषों से बच्चा लेता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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