SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ $ १०. गोता में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद गीता में नियतिवाद ( निर्धारणवाद ) के तत्त्व - साधारण दृष्टि से देखने पर गीता को नियतिवादी विचारणा के निकट पाया जा सकता है और इसी कारण कुछ पाश्चात्य और भारतीय विचारकों ने उसे नियतिवादी कहा भी है। गीता की समीक्षा करते हुए प्रो० हिल लिखते हैं कि 'गीता में संकल्प-स्वातन्त्र्य एक पूर्ण नियतिवादी विचारधारा के अन्तर्गत कार्य करनेवाली चयन की मिथ्या स्वतन्त्रता है ।" इस • प्रकार हिल के अनुसार गीता नियतिवादी दृष्टिकोण की समर्थक है । जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवशनों का तुलनात्मक अध्ययन एक समस्या कई कर्मों का कर्ता न जा डा० भीखनलाल आत्रेय यद्यपि गीता को पूर्णरूपेण नियतिवादी विचारणा का प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं मानते हैं, तथापि वे गीता में निहित नियतिवादी तत्त्वों की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं, 'देव और पुरुषार्थ की समस्या जैसी ही दर्शनों और भगवद्गीता ने खड़ी कर दी है । ये शास्त्र पुरुष को मानकर प्रकृति को कर्ता मानते हैं और कहते हैं कि सब कुछ प्रकृति के गुणों द्वारा हो रहा है । कृष्ण ने अर्जुन से कहा था यदि वह स्वयं लड़ना नहीं चाहेगा तो भी प्रकृति उसको लड़ाई में प्रवृत्त कर देगी । प्रकृति और पुरुष के कर्तव्य और अकर्त्तव्य की समस्या को गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर और जटिल बना दिया कि ईश्वर अपनी माया से सब प्राणियों को कठपुतली की नाई नचा रहा है । गीता में हमें ऐसे अनेक श्लोक मिल जाते हैं जिनका नियतिवादपरक अर्थ लगाया सकता है । नवें अध्याय में कहा गया है कि अपनी प्रकृति को वश में रखते हुए मैं इन भूतों के समूह को बारबार उत्पन्न करता हूँ जो कि प्रकृति के वश में होने के कारण बिलकुल बेबस हैं । ग्यारहवें अध्याय में कहा गया है, 'मैं लोकों का विनाश करनेवाला काल हूँ जो प्रवृद्ध होकर लोकों के विनाश में लगा हूँ, यह सब परस्पर विरोधी सेना में पंक्तिबद्ध खड़े हुए योद्धा तेरे (कर्म के ) बिना भी शेष नहीं रहेंगे - यह सब तो मेरे द्वारा पूर्व में ही मारे जा चुके हैं । हे अर्जुन ! तू अब इसका कारण भर बन जा । डा० राधाकृष्णन् भी इस श्लोक की टिप्पणी में लिखते हैं कि ईश्वर भवितव्यता की सब बातों का निश्चय करता है और उन्हें नियत करता है - ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक दैवी पूर्व-निर्णयन के सिद्धान्त का समर्थन करता है और व्यक्ति को नितान्त असहायता और क्षुद्रता तथा संकल्प और प्रयत्न की व्यर्थता की ओर संकेत करता है ।" इतना ही नहीं, गीताकार व्यक्ति के हाथ से नैतिक विकास की सारी क्षमताओं को भी छीनकर उन्हें परमात्मा के हाथों में देने का प्रयास कर नियतिवादी धारणा को और अधिक सबल बना देता है । दसवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं, 'मैं सब वस्तुओं का उत्पत्तिस्थान हूँ, मुझसे सारी सृष्टि १. गीता ( अनूदित - हिल ) विषय प्रवेश, पृ० ४८. २. भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ० ६४६. ३. गीता, १1८. ४. वही, ११।३२-३३. ५. मगवद्गीता ( रा० ), पृ० २७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy