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- का अपने आपको होता ।"
जैन, बोद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन क श्रमण ( नैतिक व्यक्ति ) कहना सहेतुक ( तर्कपूर्ण ) नहीं
बौद्ध आगमों का यह सन्दर्भ इस बात का अहेतुवाद तथा नियतिवाद किसी भी अर्थ में -समुत्पाद में नियतिवाद जिस अंश में अधिष्ठित है, नहीं है ।
६९. क्या प्रतीत्यसमुत्पाद नियतिवाद है ?
सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि प्रतीत्यसमुत्पाद की धारणा के साथ ही बौद्ध दर्शन में भी नियतिवाद का तत्त्व प्रविष्ट हो जाता है । प्रतीत्यसमुत्पाद कारण नियम का ही दूसरा नाम है । प्रतीत्यसमुत्पाद की साधारण व्याख्या है, 'ऐसा होने पर यह होता है ।' यदि हम इस व्याख्या को कठोर अर्थों में स्वीकार करें तो नियतिवाद के अधिक निकट आ जाते हैं । यदि पूर्ववर्ती घटना नियतरूप से अपनी अनुवर्ती घटना से बँ हुई है तो फिर इच्छा स्वातन्त्र्य के लिए स्थान ही कहाँ ? यदि प्रतीत्यसमुत्पाद में स्त्रीकृत अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नाम, रूप, षडायतन, स्पर्श, वंदना, तृष्णा तथा भव आदि प्रत्यय एक-दूसरे से नियतरूप में बँधे हुए हैं तो फिर इस श्रृंखला को तोड़ना कठिन होगा; क्योंकि षडायतन तो उपलब्ध है ही, उससे स्पर्श, वेदना आदि होंगे ही, और उनके होने पर तृष्णा होगी ही और इस प्रकार निर्वाण का प्रयास और उसकी प्राप्ति दोनों ही असम्भव होंगे । आचार्य बादरायण ने ब्रह्मसूत्र ( २२|४|२२ ) में बौद्ध दर्शन पर यही आक्षेप किया है कि 'सन्तान और सन्तानियों का बुद्धिपूर्वक अथवा अबुद्धि- पूर्वक नाश सम्भव नहीं है, क्योंकि सन्तान और सन्तानियों का विच्छेद नहीं होता ।' आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र के भाष्य में लिखते हैं कि सर्व सन्तानों में सन्तानियों के विच्छेद रहित कार्य कारण भाव होने से सन्तान के विच्छेद की सम्भावना नहीं है । 3 यदि प्रतीत्यसमुत्पाद की इस श्रृंखला को तोड़ा नहीं जा सकता तो फिर नैतिक जीवन और निर्वाण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। लेकिन प्रतीत्यसमुत्पाद को नियतिवाद या निर्धारणवाद कहना एक भ्रान्त धारणा ही होगी । बौद्ध दर्शन अपने प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के द्वारा जहाँ एक ओर यदृच्छावाद का निरसन करता है, वहीं दूसरी ओर उसके ही द्वारा पूर्वनिर्धारणवाद का निरसन कर देता है । गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि पूर्वनिर्धारणवाद और यदृच्छावाद दोनों ही कर्महेतु या कारण की • समुचित व्याख्या नहीं देते, मूलतः दोनों ही अहेतुवादी या अकारणवादी धारणाएँ हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद हेतु की व्याख्या के द्वारा उन दोनों का ही निरसन कर देता है । प्रतीत्यसमुत्पाद यदृच्छावाद या अहेतुवाद के निराकरण के लिए हेतुफल के अनिवार्य सम्बन्ध
१. अंगुत्तरनिकाय, ३।६१, पृ० १७७-१७९.
२. ब्रह्मसूत्र (शां० ), २।२।४।२२.
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स्पष्ट प्रमाण है कि बौद्ध विचारणा को अभिप्रेत नहीं है । फिर भी प्रतीत्यउसका पूर्णतया निवारण भी सम्भव
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