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________________ आत्मा को स्वतन्त्रता १. भिक्षुओ ! कुछ श्रमण ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भो कोई आदमी सुख-दुःख या अदुःख-असुख का अनुभव करता है वह सब पूर्वकर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है । तब उनसे मैं कहता हूँ-तो आयुष्मानो ! तुम्हारे मत के अनुसार पूर्वजन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी प्राणी हिंसा करनेवाले होते हैं, पूर्वजन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी चोरी करनेवाले-अब्रह्मचारी-झूठ बोलनेवाले-चुगलखोर-व्यर्थ बकवाद करनेवाले-लोभी-क्रोधी--मिथ्यादृष्टिवाले होते हैं । भिक्षुओ! पूर्वकृत कर्म को ही सार रूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता । जब यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है, इस विषय में ही यथार्थज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढस्मृति असंयत लोगों का अपने आपको धार्मिक श्रमण (नैतिक व्यक्ति ) कहना भी सहेतुक ( तर्कयुक्त) नहीं है। २. भिक्षुओ ! कुछ श्रमण ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख-दुःख या अदुःख-असुख अनुभव करता है, वह सब ईश्वर-निर्माण के कारण अनुभव करता है । ___ तब मैं उनसे कहता हूँ-आयुष्मानो ! तुम्हारे मत के अनुसार ईश्वर-निर्माण के फलस्वरूप ही आदमी प्राणी हिंसा करनेवाले होते है-चोरी करनेवाले- अब्रह्मचारीझूठ बोलनेवाले-चुगलखोर-कठोर बोलने वाले व्यर्थ बकवाद करनेवाले--लोभीक्रोधी-मिथ्यादृष्टी होते हैं । भिक्षुओ ! ईश्वर-निर्माण को ही साररूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है, यह करना अयोग्य है इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता । जब यह करना योग्य है, यह करना अयोग्य है, इस विषय में ही यथार्थज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढस्मृति, असंयत लोगों का अपने आपको धार्मिक श्रमण कहना सहेतुक नहीं होता। ___३. भिक्षुओ ! कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख-दुःख या अदुःख-असुख अनुभव करता है, वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के ( अनुभव करता है )। तब मैं उनसे कहता हूँ-आयुष्मानो ! तुम्हारे मत के अनुसार बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के आदमी प्राणी हिंसा करनेवाले होते हैं-चोरी करनेवाले-अब्रह्मचारी-झूठ बोलनेवाले-चुगलखोर-कठोर बोलनेवाले-व्यर्थ बकवाद करनेवालेलोभी-क्रोधी-मिथ्यादृष्टिवाले होते हैं । भिक्षुओ! इस अहेतुवाद को, इस अकारणवाद को ही साररूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है, यह करना अयोग्य है इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता। जब यह करना योग्य है, यह करना अयोग्य है इस विषय में ही यथार्थज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढस्मृति, असंयत लोगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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