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जैन, बौख तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अपहरण नहीं करता । जैन कर्म सिद्धान्त कर्मों की अवस्थाओं में संक्रमण, अपवर्तन, उदीरणा और प्रदेशोदय की धारणा एवं आत्मा में अपूर्वकरण की शक्ति को स्वीकार कर कर्म-नियम के ऊपर व्यक्ति की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लेता है। जैन कर्मसिद्धान्त की एक विशेषता यह भी है कि वह यह स्वीकार कर लेता है कि व्यक्ति जैसेजैसे अपनी स्वतन्त्रता को समझता है और अन्य ( पर ) के निर्धारण से अपने को बचाता है, वैसे-वैसे कर्म-नियम के ऊपर अपना अधिकार प्राप्त करता जाता है । अपूर्वकरण अनावृतिकरण एवं केवलीसमुद्घात के प्रत्यय कर्म-नियम के ऊपर व्यक्ति की स्वतन्त्रता के समर्थक हैं। दूसरे, यदि यह भी मान लिया जाये कि कर्म-सिद्धान्त में निर्धारणवाद या नियतिवाद का तत्त्व है तो भी कर्म सिद्धान्त में निर्धारक तत्त्व बाह्य नहीं है । कर्म सिद्धान्त एक प्रकार से आत्मनिर्धारणवाद है। हमारा निर्धारण करनेवाले हमारे ही पूर्वकर्म या संस्कार होते हैं। हमारा पूर्ववर्ती जीवन ही हमारे वर्तमान जीवन का नियामक होता है, अर्थात् हम ही अपने नियामक होते हैं। कर्म का नियम व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपलाप नहीं करता। डा० राधाकृष्णन् भी इसी धारणा का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि 'स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता नहीं है और न कर्म का अर्थ नियति है । कर्म या अतीत के साथ सम्बन्ध का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य स्वतन्त्र रूप से कोई कर्म नहीं कर सकता, बल्कि उसमें स्वतन्त्र कर्म तो अन्तनिहित ही है । जो नियम हमें अतीत के साथ जोड़ता है, वह इस बात का भी प्रतिपादन करता है कि हम कर्म के नियम को स्वतन्त्र कार्य से पराभूत कर सकते हैं। यह हो सकता है कि अंतीत अर्थात् हमारे संचित कर्म हमारे मार्ग में बाधाएँ डालें, किन्तु वे सब मनुष्य की सृजनात्मक शक्ति के आगे उसी मात्रा में झुक जायेंगे जिस मात्रा में उसमें गम्भीरता और दृढ़ता होगी । वस्तुतः जैन कर्मसिद्धान्त के द्वारा स्वीकृत आत्मनिर्धारणवाद ही एक ऐसा सिद्धान्त है जो नैतिक उत्तरदायित्व की समुचित व्याख्या करता है । पाश्चात्य चिन्तन में भी नियतिवाद और यदृच्छावाद का समन्वय आत्मनिर्धारणवाद के रूप में ही खोजा गया है। १८. बौद्ध दर्शन और नियतिवाद एवं यदृच्छावाद
बुद्ध द्वारा यदृच्छावाद और नियतिवाद की आलोचना-बौद्ध विचार न केवल अहेतुवादी यदृच्छावाद एवं नियतिवाद का निरसन करता है, वरन् ईश्वरवादी नियतिवाद और भाग्यवादी नियतिवाद की भी आलोचना करता है और उन्हें नैतिकता की व्याख्या का समुचित सिद्धान्त नहीं मानता। बौद्धागमों में इन विचारणाओं की समालोचना यह कहकर की गयी कि ये विचारणाएँ अन्ततोगत्वा अकर्मण्यतावाद की ओर ले जाती हैं। अंगुत्तरनिकाय में इनकी समालोचना करते हुए बुद्ध कहते हैं, भिक्षुओ, ये तीन तीथिकों के ऐसे मत हैं कि जो पण्डितों द्वारा उहापोह किए जाने पर, पूछे जाने पर, चर्चा किए जाने पर, जहाँ कहीं भी जाकर रुकते हैं वहाँ अकर्मण्यता पर ही जाकर रुकते हैं । कौन से तीन ? १. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २८८-२६०.
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