SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा की स्वतन्त्रता उन्होंने महावीर के जं वनप्रसंगों के आधार पर घटनाओं को नियतानियत मानकर सर्वज्ञता और पुरुषार्थवाद में संगति बिठाने का प्रयास किया है, तथापि पर्यायों को नियतानियत मानने से त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा काफी निर्बल हो जाती है । त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ की सम्भावना नियत पुरुषार्थ के रूप में ही हो सकती है। पाश्चात्य विचारक स्पीनोजा ने भी ऐसे ही नियत पुरुषार्थ की धारणा को स्वीकार किया है । सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ नियत होता है अनियत नहीं, वह पुरुषार्थ या वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अपहरण तो नहीं करती, लेकिन उसे अनियत भी नहीं रहने देती । उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं कि नियतिवाद पुरुषार्थ का अपलाप नहीं करता है, वह कहता है कि सिद्धिरूप साध्य भी नियत है तथैव पुरुषार्थरूप साधन भी नियत है । दोनों ही आत्मा की पर्याय है। एक सिद्धिरूप पर्याय है दूसरी साधनरूप पर्याय है। नियतिवाद में पुरुषार्थ को स्थान नहीं है, बिना कारण के ही वहाँ कार्य होता है, यह बात नहीं है। नियति में पुरुषार्थ होता है पर वह भी नियत ही होता है, अनियत नहीं।' साथ ही सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ का अपलाप इसलिए भी नहीं होता कि सर्वज्ञता की धारणा नियतता का प्रमाण हो सकती है, लेकिन कारण नहीं । सर्वज्ञता का प्रत्यय व्यक्ति का नियामक नहीं बनता, वह मात्र उसकी नियतता को जानता है। पुरुषार्थ ज्ञान की दृष्टि से नियत अवश्य होता है, लेकिन पुरुषार्थ जिसके द्वारा किया जाता है वह तो ज्ञाता है और ज्ञाता ज्ञान से नियत नहीं होता। इस प्रकार सर्वज्ञता के प्रत्यय में व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुण्ठन नहीं होता। सर्वज्ञ से व्यक्ति का कर्तृत्व निर्धारित नहीं होता, वरन् सर्वज्ञ भविष्य में जो किया जानेवाला है, उसको जानता है। सर्वज्ञ जो जानता है, व्यक्ति वैसा करने को बाध्य है ऐसा नहीं, वरन् जो व्यक्ति के द्वारा किया जानेवाला है, उसे सर्वज्ञ जानता है। ऐसा मानने पर सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ और व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपलाप नहीं होता। श्री यदुनाथ सिन्हा भी लिखते हैं कि ईश्वर का पूर्वज्ञान भी मानवीय स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं है। प्राक्दृष्टि अथवा पूर्वज्ञान का अर्थ अनिवार्यतः पूर्वनिर्धारण नहीं है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वज्ञतावाद निर्धारणवाद नहीं है । $ ७. क्या जैन कर्म-सिद्धान्त निर्धारणवाद है ? जैन कर्म-सिद्धान्त को एकान्त रूप में नियतिवाद या निर्धारणवाद नहीं कहा जा सकता। जैन कर्म-सिद्धान्त यह अवश्य मानता है कि व्यक्ति का प्रत्येक संकल्प एवं प्रत्येक क्रिII अकारण नहीं होती है, उसके पीछे कारण रूप में पूर्ववर्ती कर्म रहते हैं। हमारी सारी क्रियाएँ, समग्र विचार और मनोभाव पूर्वकर्म का परिणाम होते हैं, उनसे निर्धारित होते हैं । लेकिन इतने मात्र से कर्म सिद्धान्त को निर्धारणवाद मान लेना संगत नहीं होगा। प्रथम तो यह कि जैन कर्म-सिद्धान्त व्यक्ति की समग्र स्वतन्त्रता का १. अमर भारती, सितम्बर १६६७, पृ० ५९-६१. २. नीतिशास्त्र, पृ० २६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy