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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अर्थ में हो आया है जैसे वर्तमान में भी किसी असाधारण विद्वान् के बारे में कह देते हैं कि उनके ज्ञान का क्या अन्त, उनका ज्ञान तो अथाह है । इसी प्रकार दूसरा पर्यायवाची शब्द केवलज्ञान आत्म-अनात्म के विवेक या आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्धित है ।' यदि इन सब आधारों पर सर्वज्ञता का अर्थ मात्र पूर्ण दार्शनिक ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान अथवा तत्त्वस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करें, तब तो जैन दर्शन में पुरुषार्थ का स्थान स्पष्ट हो जाता है और उसके द्वारा गोशालक के नियतिवाद के विरुद्ध प्रस्तुत पुरुषार्थवादी धारणा की रक्षा भी की जा सकती है ।
सर्वज्ञता का त्रैकालिक ज्ञान सम्बन्धी अर्थ और पुरुषार्थ की सम्भावना
लेकिन एक गवेषक विद्यार्थी के लिए यह उचित नहीं होगा कि परम्परा सिद्ध कालिक सर्वज्ञता की धारणा की अवहेलना कर दी जाये । न केवल जैन परम्परा में, वरन् बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी सर्वज्ञता का त्रैकालिक ज्ञानपरक अर्थ स्वीकृत रहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहकर कि 'उन अनेक जन्मों को मैं जानता हूँ, तू नहीं, ' अपनी सर्वज्ञता का ही निर्देश किया है । यह प्रश्न शंका की दृष्टि से देखा जा सकता है कि महावीर, बुद्ध और कृष्ण सर्वज्ञ थे या नहीं; अथवा किसी व्यक्ति को ऐसा त्रैकालिक ज्ञान हो सकता है या नहीं । फिर भी त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ की कल्पना तर्कविरुद्ध नहीं कही जा सकती । देश और काल की सीमाओं से ऊपर उठकर त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ की धारणा सिद्ध हो जाती है । प्रबुद्ध वैज्ञानिक एवं सापेक्षवाद के प्रवर्तक आइन्स्टीन ने निरपेक्ष दृष्टा की परिकल्पना को स्वीकार किया था । कोई त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ अस्तित्व में है या था, यह चाहे सत्य न हो लेकिन कोई त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ हो सकता है यह तार्किक सत्य अवश्य है । क्योंकि यदि जगत् एक नियमबद्ध व्यवस्था है तो उस व्यवस्था के ज्ञान के साथ ही ठीक वैसे ही त्रैकालिक घटनाओं के ज्ञान की सम्भावना स्पष्ट हो जाती है, जैसे एक ज्योतिषी को नक्षत्र - विज्ञान के नियमों के ज्ञान के आधार पर भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी सूर्य एवं चन्द्र ग्रहणों की घटनाओं का त्रैकालिक ज्ञान हो जाता है । यदि सर्वज्ञ आत्म- द्रव्य को सभी पर्यायों को जानता है तो हमें आत्मा की सभी पर्यायों को नियत भी मानना होगा । यह मान्यता स्पष्ट रूप से निर्धारणवाद की दिशा में ले जाती है । यद्यपि नियतिवाद और जैन सर्वज्ञता की धारणा में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ नियतिवाद में पुरुषार्थ या व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अस्वीकार कर नियतता को स्वीकार किया जाता है वहाँ सर्वज्ञ के ज्ञान में पुरुषार्थ और व्यक्ति की स्वतन्त्रता को मानकर ही सब भावों की नियतता को स्वीकार किया जाता है । उपाध्याय हस्तीमलजी ने अपने एक लेख में इसका समर्थन किया है । यद्यपि
१. डा० इन्द्रचन्द्र से चर्चा के आधार पर.
२. गीता, ४५०
३. कॉसमोलाजी ओल्ड एण्ड न्यू, भूमिका पृ० १३.
४. श्रमणोपासक, २० जुलाई १९६७, पृ० ६०.
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