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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता २७९ स्व-आत्म स्वरूप को जानता है यह परमार्थदृष्टि है । आचार्य हरिभद्र ने भी सर्वज्ञता का सर्वसम्प्रदाय - अविरुद्ध अर्थ किया । पं० सुखलालजी का दृष्टिकोण वर्तमान युग के पण्डित सुखलालजी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा, जगत् एवं साधनामार्ग सम्बन्धी दार्शनिक ज्ञान को ही उस युग में सर्वज्ञत्व माना जाता था, न कि त्रैकालिक ज्ञान को । जैन परम्परा का सर्वज्ञत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समानभाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है । बुद्ध जब मालुंक्यपुत्त नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार आर्यसत्यों के ज्ञान का ही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्त्वों के ज्ञान का नहीं, तब वह वास्तविकता की भूमिका पर हैं । उसी भूमिका के साथ महावीर के सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति और अल्पोक्ति नहीं करनेवाले सन्त प्रकृति के महावीर द्रव्य पर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्व रूप मानते होंगे । जैन और बौद्ध परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध विद्वानों ने बुद्ध को कालिक ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथापि अनेक असाधारण ( प्रतिभासम्पन्न ) बौद्ध विद्वानों ने उनको सीधे सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है, जबकि जैन परम्परा में सर्वज्ञ का सीधासादा अर्थ भुला दिया जाकर उसके स्थान में तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित एवं प्रतिष्ठित हो गया । जैन परम्परा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक ज्ञान की पूर्णता को ही प्रगट करता है, न कि त्रैकालिक ज्ञान को । 'केवल' शब्द सांख्य दर्शन में भी प्रकृतिपुरुष विवेक के ही प्रयुक्त होता है और यदि यह शब्द सांख्य परम्परा से जैन परम्परा में आया है यह माना जाये, तो इस आधार पर भी केवलज्ञान का अर्थ दार्शनिक ज्ञान अथवा तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा न कि त्रैकालिक ज्ञान । आचारांग का यह वचन 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणइ' यही बताता है कि जो एक आत्मस्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है न कि कालिक सर्वज्ञता । केवलज्ञानी के सम्बन्ध में आगम का यह वचन कि 'सी जाणइ सीण जाणइ' ( भगवतीसूत्र ) भी यही बताता है केवलज्ञान मैकालिक सर्वज्ञता नहीं है, वरन् विशुद्ध आध्यात्मिक या दार्शनिक ज्ञान है । २ अर्थ में डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री का दृष्टिकोण सर्वज्ञता के स्थान पर प्रयुक्त होनेवाला अनन्तज्ञान भी त्रैकालिक ज्ञान नहीं हो सकता । अनन्त का अर्थ सर्व नहीं माना जा सकता । वस्तुतः यह शब्द स्तुतिपरक १. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ५५०. २. वही, पृ० ५१-५५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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