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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन विचारणा में कर्म-सिद्धान्त के साथ-साथ त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ की धारणा स्वीकृत रही है। यही दो ऐसे प्रत्यय हैं जिनके द्वारा नियतिवाद का तत्त्व भी जैन विचारणा में प्रविष्ट हो जाता है। सर्वज्ञता का प्रत्यय और पुरुषार्थ की सम्भावना
जैन विचार में सर्वज्ञता की धारणा स्वीकृत रही है, लेकिन इसके आधार पर जैन आचारदर्शन को नियतिवादी कहना इस बात पर निर्भर करता है कि सर्वज्ञता का क्या अर्थ है। सर्वज्ञता का अर्थ
जैन दर्शन सर्वज्ञता को स्वीकार करता है । जैनागमों में अनेक ऐसे स्थल हैं जिनमें तीर्थंकरों एवं केवलज्ञानियों को त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ कहा गया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, अंतकृतदशांगसूत्र एवं अन्य जैनागमों में इस त्रिकालज्ञ सर्वज्ञतावादी धारणा के अनुसार गोशालक, श्रेणिक, कृष्ण आदि के भावी जीवन के सम्बन्ध में भविष्यवाणी भी की गयो है। यह भी माना गया है कि सर्वज्ञ जिस रूप में घटनाओं का घटित होना जानता है, वे उसी रूप में घटित होती हैं । कार्तिकेयानप्रेक्षा में कहा गया है कि जिसकी जिस देश, जिस काल और जिस प्रकार से जन्म अथवा मृत्यु की घटनाओं को सर्वज्ञ ने देखा है वे उसी देश, उसी काल और उसी प्रकार से होंगी। उसमें इन्द्र या तीर्थंकर कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकता ।' उत्तरकालीन जैन ग्रन्थों में इस त्रैकालिक ज्ञान सम्बन्धी सर्वज्ञत्व की धारणा का मात्र विकास ही नहीं हुआ, वरन् उसको ताकिक आधार पर सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है । यद्यपि बुद्ध ने महावीर की त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा का खण्डन करते हुए उसका उपहासात्मक चित्रण भी किया और अपने सम्बन्ध में त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की इस धारणा का निषेध भी किया था, लेकिन परवर्ती बौद्ध साहित्य में बुद्ध को भी उसी अर्थ में सर्वज्ञ स्वीकार कर लिया गया जिस अर्थ में जैन तीर्थंकरों अथवा ईश्वरवादी दर्शनों में ईश्वर को सर्वज्ञ माना जाता है ।
सर्वज्ञत्व के इस अर्थ को लेकर कि सर्वज्ञ हस्तामलकवत् सभी जागतिक पदार्थों की कालिक पर्यायों को जानता है, जैन विद्वानों ने भी काफी ऊहापोह किया है। इतना ही नहीं, सर्वज्ञता की नयी परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गयीं। कुन्दकुन्द और हरिभद्र का दृष्टिकोण
प्राचीन युग में आचार्य कुन्दकुन्द और याकिनी सुनू हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी उपर्युक्त परम्परागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नयी परिभाषाएँ प्रस्तुत की। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं प्रवचनसार में कहा कि सर्वज्ञ लोकालोक जैसी आत्मेतर वस्तुओं को जानता है यह व्यवहारनय है, जबकि यह कहना कि सर्वज्ञ १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३२१.३२२. २. मरिमनिकाय, २।३।६, २।३।१.
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