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________________ आत्मा को स्वतन्त्रता वस्तुतः समालोच्य आचारदर्शन नियतिवाद और यदृच्छावाद का ऐकान्तिक समर्थन नहीं करते, उनमें दोनों का सापेक्ष स्थान है । $ ५. जैन आचारदर्शन में पुरुषार्थ और नियतिवाद • महावीर द्वारा पुरुषार्थ का समर्थन जैन विचारधारा पुरुषार्थवाद की समर्थक रही है । उपासकदशांगसूत्र में क्रिया, बल ( शारीरिक शक्ति ), वीर्य ( आत्मशक्ति ), पुरुषाकार ( पौरुष ) और पराक्रम को स्वीकार किया गया है । विश्व के समस्त भाव अनियत ( अणियया सव्त्र भावा ) माने गये हैं ।" इस प्रकार महावीर नियतिवाद या निर्धारणवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन करते हैं । उन्होंने जीवन भर गोशालक के नियतिवाद का विरोध किया । उपासक दशांग में महावीर ने सकडालपुत्र श्रावक के सम्मुख अनेक युक्तियों से नियतिवाद - का निरसन करके पुरुषार्थवाद का समर्थन किया है । २ जैन दर्शन में नियतिवाद के तत्त्व ( अ ) सर्वज्ञता - यद्यपि उपासकदशांग के आधार पर सम्पूर्ण घटनाक्रम को अनियत मानकर पुरुषार्थवाद की स्थापना तो हो जाती है, लेकिन इस कथन की संगति जैन विचारणा की त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा के साथ नहीं बैठती है । यदि सर्वज्ञ त्रिकालज्ञ है तो फिर वह भविष्य को भी जानेगा, लेकिन अनियत भविष्य नहीं जाना जा सकता । यहाँ पर दो ही मार्ग हैं, या तो सर्वज्ञ की त्रिकालज्ञता की धारणा को छोड़कर उसका अर्थ आत्मज्ञान या दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान लिया जाये अथवा इस धारणा को छोड़ा जाये कि सब भाव अनियत हैं । २०७ ( ब ) कर्मसिद्धान्त - यदि सर्वज्ञता की त्रिकालज्ञ धारणा से अलग हटकर अनियतता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लें, तो भी दूसरे अन्य प्रश्न सामने आते हैं । प्रथम तो यह कि सब भावों को अनियत मानने पर यदृच्छावाद ( संयोगवाद ) के दोष आ जावेंगे और कार्य-कारण सिद्धान्त या हेतुवाद को अस्वीकृत कर संयोगवाद मानना पड़ेगा जिसमें नैतिक उत्तरदायित्व के लिए कोई स्थान नहीं होगा क्योंकि यदि हमारे कार्य संयोग का परिणाम हैं तो हम उसके लिए उत्तरदायी नहीं हो सकते । दूसरे, अनियत भावों की संगति कर्म सिद्धान्त से भी नहीं बैठतीं । यदि सभी भाव अनियत हैं तो फिर शुभाशुभ कृत्यों का शुभाशुभ फलों से अनिवार्य सम्बन्ध भी नहीं होगा । यदि शुभाशुभ कृत्यों का उनके फलों से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं माना जायेगा तो फिर व्यक्ति की सारी नैतिक आस्था ही डगमगा जायेगी । तीसरे, अनियतता का अर्थ कारणता या हेतु का अभाव भी नहीं होता । कारणता के प्रत्यय को अस्वीकार करने पर सारा कर्म सिद्धान्त ही ढह जायेगा | कर्म सिद्धान्त नैतिक जगत् में स्वीकृत कारणता के सिद्धान्त का ही एक रूप है । १. उपासक दशांग, ६ १६६. २. वही, ७ १९३ - १९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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