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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ३. परिवर्तनवाद-यदृच्छावादी परिवर्तनवादी है। वह व्यक्तित्व को नित्य या स्थायी नहीं मानता । उसका कहना है कि चरित्र स्थिर नहीं, अपितु अस्थिर है। उसमें किसी भी क्षण आमूल परिवर्तन सम्भव है । वह व्याध से वाल्मीकि अथवा सिद्धार्थ से बुद्ध हो सकता है। समीक्षा
यदि इच्छा-स्वातन्त्र्य का अर्थ अकारण या अकस्मात् है तो फिर उत्तरदायित्व का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । जब तक व्यक्ति यह नहीं जान लेता कि वह क्या करने वाला है तब तक उसे नैतिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता। यदि इच्छास्वातन्त्र्य का अर्थ पूरी तरह अनियतता एवं भविष्यवाणी की असम्भावना है तो फिर कर्म का चयन मात्र संयोग ( Chance ) ही होगा और तब नैतिक उत्तरदायित्व नहीं माता है । इस प्रकार यदृच्छावाद नैतिक उत्तरदायित्व की दृष्टि से असंगत है। भारतीय आचारदर्शन और यदृच्छावाद
जैन कर्म-सिद्धान्त में यदृच्छा का समुचित मूल्यांकन हुआ है । कर्म-सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि यद्यपि व्यक्ति शुभाशुभ क्रियाओं के करने में पूर्वकर्मप्रकृतियों से प्रभावित होता है, फिर भी व्यक्ति में शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के चयन की स्वतन्त्रता रहती है। कर्म-सिद्धान्त व्यक्ति का निर्देशक तो बनता है, लेकिन शासक नहीं । जैन दर्शन में मात्मा की स्वतन्त्रता कर्म-सिद्धान्त को नियामकता पर ही स्वीकृत है।
कर्मवर्गणाएँ आत्मा की निर्णायक शक्ति का अपहरण नहीं करतीं यद्यपि कुण्ठित अवश्य करती हैं। और, यदि यदृच्छा का अर्थ नैतिक जीवन में निर्णय की स्वतन्त्रता मानते हैं तो कह सकते हैं कि जैन कर्म-सिद्धान्त में उसका समुचित मूल्यांकन हुआ है। यद्यपि यदृच्छा के संयोगवादी दृष्टिकोण का समर्थन जैन परम्परा में नहीं है । जैन विचारणा के अनुसार जगत् में भौतिक एवं चत्तसिक दोनों स्तरों पर कारणता का प्रत्यय काम करता है । हमारे संकल्पों के पीछे भी पूर्व कर्म या पूर्वसंस्कार कार्य कर रहे हैं । वस्तुतः जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है, उसमें स्वतन्त्रता की सम्भावनाएँ हैं और वह पूर्ण स्वतन्त्रता की दिशा में ऊपर उठ सकता है ।
बौद्ध दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को स्वीकार कर यदृच्छावाद के अहेतुवादी या संयोगवादी दृष्टिकोण को अस्वीकार करता है । वह अहेतुवाद को नैतिक दृष्टि से अनुपयोगी मानता है, यद्यपि दूसरी ओर हेतु वाद को भी अपने ऐकान्तिक अर्थ में नैतिक जीवन के लिए अनुपयुक्त मानता है । बुद्ध ने दोनों विचारधाराओं का अतिवाद के रूप में विरोध किया है । वे तो मध्यम मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।
गीता में यदृच्छावाद की कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं है, फिर भी इतमा अवश्य है कि गीता यदृच्छावाद के अहेतुवादी पक्ष का समर्थन नहीं करती है। वह कर्ता की स्वतन्त्रता को मानते हुए भी कर्म और संकल्प को अहेतुक नहीं मानती।
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