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________________ ३२ जैन दर्शन का दृष्टिकोण ३३८ | बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण ३३९ / हिन्दू धर्म का दृष्टिकोण ३३९ / पाश्चात्य दृष्टिकोण ३४० / ६. शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर जैन दृष्टिकोण ३४० | बौद्ध दृष्टिकोण ३४२ / गीता का दृष्टिकोण ३४२ / पाश्चात्य दृष्टिकोण ३४३ / ७. शुद्ध कर्म ( अकर्म ) ८. जैन दर्शन में कर्म-अकर्म विचार ९. बौद्ध दर्शन में कर्म-अकर्म का विचार १. वे कर्म जो कृत (सम्पादित) नहीं हैं लेकिन उपचित (फल प्रदाता) हैं ३४६ / २. वे कर्म जो कृत भी हैं और उपचित हैं। ३४६ / ३. वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं ३४६ / ४. वे कर्म जो कृत भी नहीं हैं और उपचित भी नहीं हैं १०. गीता में कर्म-अकर्म का स्वरूप ३४७ / १. कर्म ३४७ / २. विकर्म ३४७ / ३. अकर्म ३४७ / ११. अकर्म की अर्थ- विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार १. बन्धन और दुःख १. प्रकृति बन्ध ३५६ / २. प्रदेश बन्ध ३५६ / ३. स्थिति बन्ध ३५६ / ४. अनुभाग बन्ध ३५६ / २. बन्धन का कारण आस्रव जैन दृष्टिकोण ३५६ / १. मिथ्यात्व ३६० / २. अविरति ३६० / ३. प्रमाद ३६१ / (क) विकथा ३६१ / (ख) कषाय ३६१ | (ग) राग ३६१ | (घ) विषय - सेवन ३६१ / (ङ) निद्रा ३६१ / ४. कषाय ३६१ / ५. योग ३६१ / बौद्ध दर्शन में बन्धन ( दुःख) का कारण ३६२ / गोता की दृष्टि में बन्धन का कारण ३६३ / सांख्य योग दर्शन में बन्धन का कारण ३६५ / न्याय दर्शन में बन्धन का कारण ३६५ / Jain Education International ३४० For Private & Personal Use Only ३४३ ३४४ ३४६ १२ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ३४७ ३४८ ३५५ ३५६ www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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