SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तया गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन है, वैसा ही होता है अथवा होगा, उसमें तिलमात्र भी परिवर्तन नहीं होता। अतः न तो शोक करना चाहिए और न व्यर्थ की चिन्ता ही करनी चाहिए-'राई घटे न तिल बढ़े रह रह जीव निशंक ।' इसी प्रकार कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार वह कहता है कि सुख-दुःख, आपत्ति और सम्पत्ति सभी पूर्वकर्म के अधीन हैं । अतः न तो इनके लिए व्याकुलता एवं आसक्ति रखनी चाहिए और न इनके निमित्त बनने वालों के प्रति घृणा, तिरस्कार या क्रोध करना चाहिए । गीता में नियतिवाद का तत्त्व जिस ईश्वरीय विधान के रूप में प्रतिपादित है, उसके पीछे भी यही निर्देश है कि सभी कुछ ईश्वरीय इच्छा से संचालित हो रहा है, अतः न तो कर्तृत्व का अभिमान करना चाहिए और न अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में विचलित होना चाहिए, वरन् ईश्वरीय यन्त्र के रूप में अनासक्त एवं तटस्थ भाव से - आचरण करते रहना चाहिए, उसकी कृपा से ही परम शान्ति प्राप्त होगी। नियतिवाद के सामान्य दोष नियतिवाद के उपर्युक्त लाभ होते हुए भी उसमें न तो नैतिक प्रगति के लिए मानवीय पुरुषार्थ का कोई महत्त्व रहता है और न किसी प्रकार के नैतिक उत्तरदायित्व की स्थापना ही सम्भव होती है और न नैतिक आदेश ही कोई अर्थ रखता है । जबकि, नैतिकता के लिए नैतिक प्रगति और नैतिक उत्तरदायित्व अनिवार्य है। नैतिक आदेश की सार्थकता इसी में है कि व्यक्ति में चयन की स्वतन्त्र सम्भावनाओं को स्वीकार किया जाये । व्यक्ति को जो कुछ करना है वह यदि पूरी तरह निश्चित है, तो यह कहने का क्या अर्थ रह जाता है कि उसे यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए ? इसो प्रकार नैतिक प्रगति के लिए पुरुषार्थ-क्षमता को स्वीकार करना आवश्यक है। यदि व्यक्ति में स्वतन्त्र रूप से कुछ करने की क्षमता नहीं है तो फिर उससे नैतिक प्रगति की अपेक्षा करना व्यर्थ है। साथ ही नैतिक उत्तरदायित्व के लिए भी यह आवश्यक है कि चुनाव व्यक्ति ने स्वयं किया हो या वह चुनाव के लिए बाध्य नहीं किया गया हो और इस अर्थ में कर्म स्वयं उसका हो। लेकिन नियतिवाद इसे स्वीकार नहीं करता और इस प्रकार नैतिकता की समुचित व्याख्या करने में असफल सिद्ध होता है । ४. यदृच्छावाद भारतीय साहित्य में नियतिवाद का विरोधी सिद्धान्त यदृच्छावाद है । श्वेताश्वतर उपनिषद् और गीता में यदृच्छावाद का उल्लेख है । यदृच्छावाद नियतिवाद का . विरोधी है । वह मानवीय संकल्प एवं वरण ( चयन ) को कार्य-कारण नियम से परे एवं अहेतुक मानता है । यदृच्छा शब्द का अर्थ आकस्मिकता या संयोग है ।' यदृच्छा १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३२१-३२. २. गीता, १८:६१-६२. ३. श्वेताश्वतर उपनिषद्, १२, गीता, २।१२,४।२२. ४. श्वेताश्वतर उपनिषद् (भा०), १.२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy