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________________ मात्मा की स्वतन्त्रता . १. सभी भाव स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, जो इस बात को निश्चित रूप से जान लेता है उसका दर्प या अभिमान क्या बिगाड़ सकता है ?' अर्थात् नियतिवाद को मानने पर दर्प या अभिमान नहीं होता। २. मुझे जो अवस्था प्राप्त हुई, ऐसी ही होनहार ( भवितव्यता ) थी। जो इसे जान लेता है, वह कभी भी मोह में नहीं पड़ता। ३. जो वस्तु नहीं मिलनेवाली होती है उसको कोई मनुष्य मन्त्र, बल, पराक्रम, बुद्धि, पुरुषार्थ, शील, सदाचार और धन-सम्पत्ति से भी नहीं पा सकता, फिर उसकी अनुपलब्धि के लिए शोक क्यों किया जाय ? इस प्रकार नियतिवाद को मानने पर कठिन परिस्थितियों में भी कोई शोक नहीं होता। ४. सभी कुछ काल के अधीन है, इस प्रकार जगत् की नियतता जाननेवाले को क्या व्यथा हो सकती है ? वह तो लाभ-अलाभ या सुख-दुःख में भी समभाव रखता है। इस प्रकार नियतिवाद दुःखद अवस्थाओं में भी धैर्य एवं समभाव का पाठ पढ़ाकर तथा सुखद अवस्थाओं में अहंकार और कर्तृत्वभाव के दोषों से बचाकर, पूर्णतया निष्काम जीवन जीना सिखाता है। स्पीनोजा ने ईश्वरवादी नियतिवाद के निम्न लाभ बताये हैं, जिनका महाभारत की विचारणा से काफी साम्य है। १. यह हमें सर्वथा ईश्वरीय विधान के अनुसार चलना सिखाता है और ईश्वरीय स्वभाव का भागी बनाता है। ऐसा सिद्धान्त हमारी आत्मा को केवल पूर्ण शान्ति ही प्रदान नहीं करता, बल्कि यह भी बतलाता है कि हमारा निरतिशय सुख, हमारी धन्यता या कृतकृत्यता एक ईश्वर के ज्ञान में है जिसके द्वारा हमारे कार्य प्रेम और धर्मनिष्ठा को चोदना के अनुसार ही होते हैं । २. यह सिद्धान्त हमें आचरण की उन बातों को निर्धारित मानने की सीख देता है जो हमारी शक्ति से बाहर है। यह हमें देवी विधान या भाग्य की अनुकूल या प्रतिकल स्थिति में भी धैर्य और सहनशीलतापूर्वक मन को साम्यावस्था रखने का पाठ पढ़ाता है। ३. यह सिद्धान्त हमारे सामाजिक जीवन को उदात्त बनाता है, क्योंकि यह हमें किसी भी मनुष्य से घृणा, तिरस्कार, उपहास, ईर्ष्या या क्रोध न करना सिखाता है। नियतिवाद को उपयोगिता के सम्बन्ध में जैन दर्शन का दृष्टिकोण भी यही है । वह अपने सर्वज्ञतावाद एवं कर्मवाद के सिद्धान्त के द्वारा उसी समत्व-भावना और निष्काम दृष्टि का पाठ पढ़ाता है । वह कहता है कि सर्वज्ञ ने जैसा अपने ज्ञान में देखा १. मह भारत, शन्तिपर्व, २२२१२७. २. वही, २२६।१२. ३. वही, २२६।२०. ४ वही, २२४।१६. ५. स्पीनोजा और उसका दर्शन, पृ० ९३. १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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