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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नियतिवाद के सामान्य लाभ
नियतिवाद के सम्बन्ध में सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोणों की नैतिक समीक्षा करने के लिए यह आवश्यक है कि उनके गुण-दोषों का सम्यक् मूल्यांकन कर लिया जाये । नियतिवादी विचारक अपने सिद्धान्त के समर्थन में कहते हैं कि (१) नियतिवाद संकल्प की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है । वह यह बताता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा बलवती प्रेरणाएँ ही उसके संकल्प के मूल में हैं। संकल्प संयोगजन्य ( Casual ) नहीं है वरन् उसके चरित्र से ही निर्गमित है, अतः वह उसके लिए उत्तरदायी है । (२) यदृच्छावाद में संकल्प संयोगजन्य (आकस्मिक ) होता है, अतः उसमें उत्तरदायित्व नहीं आता, जबकि नियतिवाद में संकल्प चरित्र का परिणाम होता है, अतः वह उत्तरदायित्व की सम्यक् व्याख्या करता है। नियतिवाद अपने सिद्धान्त का समर्थन निम्न तर्कों के आधार पर करता है
१. संकल्प का मनोविज्ञान-इसके अनुसार संकल्प स्वतन्त्र नहीं है, बल्कि प्रबलतम प्रवर्तन के द्वारा निर्धारित होता है ।
२. मानव-स्वभाव की भविष्यवाणी की सम्भावना-यदि मानव-कर्म पूर्वपरिस्थितियों के द्वारा निर्धारित न होकर पूर्णतया स्वतन्त्र होते तो उनका पूर्वज्ञान सम्भव न होता, जैसा कि साधारणतः होता है ।
३. कार्य-कारण नियम-चूंकि कोई भी घटना अकारण नहीं होती, इसलिए संसार में कोई वस्तु कारणहीन नहीं है । अतः संकल्प भी स्वतन्त्र नहीं है ।
४. शक्ति-नित्यता का नियम-विश्व में शक्ति का परिणाम सदा समान रहता है, किन्तु संकल्प-स्वातन्त्र्य में नूतन भौतिक शक्ति की सृष्टि तथा विश्व में शक्ति के निश्चित परिमाण की वृद्धि गर्भित है।
५. विश्व-विषयक जड़वादी परिकल्पना-मन मस्तिष्क का उपविकार है, और इसलिए उसमें कारण-शक्ति और स्वतन्त्रता नहीं।
६. विश्व की सर्वेश्वरवादी परिकल्पना-इसके अनुसार ईश्वर ही एकमात्र सत्य है तथा मनुष्य के मन की अपनी स्वतन्त्र सत्ता और फलस्वरूप संकल्प-स्वातन्त्र्य नहीं हैं।
७. ईश्वर का पूर्वज्ञान-मनुष्य के भावी कर्मों को पहले से जानने के कारण, ईश्वर उन्हें पहले ही निर्धारित कर चुका है। नियतिवाद की व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता
नियतिवाद की व्यावहारिक जीवन में क्या उपयोगिता है, यह बात महाभारत एवं पाश्चात्य विचारक स्पीनोजा के कथनों से स्पष्ट हो जाती है। महाभारत के शान्तिपर्क में नियतिवादी विचार की उपयोगिता का स्पष्ट निर्देश है
१. नीतिशास्त्र, पृ० २८८-२८९.
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