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मात्मा की स्वतन्त्रता
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होगा । अर्थात् सर्वज्ञतावाद अनिवार्यतः नियतिवाद की ओर ले जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त छः प्रकार के नियतिवाद प्राचीन भारतीय चिन्तन में उपलब्ध हैं, लेकिन पाश्चात्य आचारदर्शन में जो नियतिवाद स्वीकृत है, उसका आधार इनसे भिन्न है। वह वैज्ञानिक जगत् के कारणता के नियम पर आधारित है। इस प्रसंग में उसपर भी थोड़ी चर्चा कर लेना आवश्यक है। ३. पाश्चात्य दर्शन में नियतिवाद को धारणा
पाश्चात्य आचारदर्शन में नियतिवाद की धारणा वैज्ञानिक कारण-सिद्धान्त पर आधारित है । उसे हम 'वैज्ञानिक नियतिवाद' कह सकते हैं । यद्यपि वैज्ञानिक नियतिवाद घटनाओं को पूर्वनियत तो नहीं मानता, लेकिन जब हम कारणता के नियमों को ही जगत् का एकमात्र सत्य स्वीकार कर लेते हैं तो भी हम नियतिवाद के घेरे में आबद्ध हो जाते हैं। यदि सभी अनुवर्ती घटनाएँ अपनी पूर्ववर्ती घटनाओं से कारणता के नियम के आधार पर बँधी हुई हैं, तो फिर वैयक्तिक आचरण में संकल्प-स्वातन्त्र्य का क्या स्थान रह जायेगा ? पाश्चात्य आचारदर्शन में इसी कारण-सिद्धान्त के आधार पर निर्धारणवाद का विकास हुआ है। पाश्चात्य दर्शन के अनेक विद्वानों ने प्रकृत विज्ञानों के प्रभाव में आकर कारणता के नियम को पूर्णरूप से मानवीय प्रकृति पर भी थोपने का प्रयास किया और परिणाम यह हुआ कि वे नियतिवाद के दलदल में फंस गये। इन्होंने यह मान लिया कि मनुष्य एक आत्मचेतन प्राणी तो अवश्य है, लेकिन उसके समस्त संकल्प एवं संकल्पजन्य कर्म भौतिक परिस्थितियों और शारीरिक तथा मानसिक दशाओं से ठीक उसी प्रकार नियत होते हैं, जिस प्रकार पारस्परिक आकर्षण और विकर्षण से ग्रहों को गति नियत होती है। इस वैज्ञानिक कारणतावादी यान्त्रिक धारणा में मनुष्य के समग्र संकल्प एवं कर्म परिवेश और वंशानुक्रम के परि-णाम होते हैं, उन्हीं से नियत होते हैं और मानवीय स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। मनुष्य मानवीय शरीर के रूप में एक ऐसा आत्मचेतन यन्त्र होता है जो परिवेशरूपी शक्ति से प्रभावित एवं चालित होता है। संकल्प एवं कर्म उसके अपने नहीं होते, वरन् प्रकृति को नियामक शक्ति का परिणाम होते हैं। इस समग्र विचारणा में कारणतावादी धारणा पर ही अधिक जोर दिया गया है। पाश्चात्य चिन्तन में इसके अनेक रूप हैं, जिनमें प्रमुख हैं वाटसन का परिस्थितिवादी नियतिवाद और फ्रायड का मानसिक नियतिवाद । पश्चिम में नियतिवादी विचारकों को एक लम्बी परम्परा है जिसमें -स्पीनोजा, ह्यूम, बेन्थम, मिल, कडवर्थ आदि उल्लेखनीय हैं। कारणतावादी नियतिवाद भी पुरुषार्थ एवं संकल्प-स्वातन्त्र्य की धारणा का उतना ही विरोधी सिद्ध होता है जितना संयोगवाद या यदृच्छावाद । वस्तुतः किसी भी ऐकान्तिक विचारप्रणाली में, चाहे वह कारणता की हो या अकारणता की, मानवीय पुरुषार्थ का यथार्थ मूल्यांकन नहीं हो सकता; नैतिक जीवन के लिए दोनों आवश्यक हैं। लेकिन अपने ऐकान्तिक रूप में दोनों ही नैतिक जीवन को असम्भव बना देते हैं । यही कारण है कि जैन दार्शनिक ऐकान्तिक । मान्यता को असम्यक् मानते हैं।
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