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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ईश्वरीय हाथों का एक उपकरण मात्र होता है। जो ईश्वरवादी दर्शन यह स्वीकार कर लेते हैं कि ईश्वरीय संकल्प ही एकमात्र संकल्प है, व्यक्ति तो उस संकल्पपूर्ति में एक निमित्त मात्र है, अथवा यह स्वीकार करते हैं कि वैयक्तिक विकास और मुक्ति ईश्वरीय चुनाव पर निर्भर है-ईश्वर जिसका विकास करना चाहता है उसे सन्मार्ग में नियोजित कर देता है, तो वे नियतिवादी धारणा के शिकार बन जाते हैं। इस विचारधारा के मूल में ईश्वर को सर्वशक्तिसम्पन्न मानने की धारणा है। समालोच्य आचारदर्शनों के पूर्वकाल में यह विचारधारा विद्यमान थी। उपनिषद् साहित्य में इस विषय के अनेक सन्दर्भ खोजे जा सकते हैं। डा० आत्रेय के शब्दों में उपनिषदों में यहाँ तक भी कहा गया है कि जिसको वे (परमात्मा) ऊपर उठाना चाहते हैं, उससे अच्छे कर्म कराते हैं और जिसको नीचे गिराना चाहते हैं, उससे बुरे कर्म कराते हैं।' कठोपनिषद् में कहा गया है, जब यह परमात्मा स्वयं चुनता है तभी यह उसके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । ईसाई धर्म में भी सेण्ट ऑगस्टाइन यही मानते थे कि मनुष्य का उद्धार केवल भगवान् की दया से हो सकता है, यद्यपि पैलेगियस ने उनकी इस धारणा का विरोध किया था और स्वतन्त्र संकल्प की धारणा को स्वीकार किया था । गीता में अनेक स्थानों पर इस धारणा का समर्थन मिलता है और यही कारण है कि कई विचारकों ने उसे नियतिवादी विचारणा के समर्थक ग्रन्थ के रूप में देखा, यद्यपि यह धारणा समुचित नहीं है । इसपर हम अगले पृष्ठों में प्रकाश डालेंगे। ६. सर्वज्ञतावाद सर्वज्ञता की धारणा श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराओं की प्राचीन धारणा है । सर्वज्ञतावाद यह मानता है कि सर्वज्ञ देश और काल की सीमाओं से ऊपर ठकर कालातीत दृष्टि से सम्पन्न होता है और इस कारण उसे भूत के साथ-साथ भविष्य का भी पूर्वज्ञान होता है । लेकिन जो ज्ञात है उसमें सम्भावना, संयोग या अनियतता नहीं हो सकती। नियत घटनाओं का पूर्वज्ञान हो सकता है, अनियत घटनाओं का नहीं । यदि सर्वज्ञ को भविष्य का पूर्वज्ञान होता है और वह यथार्थ भविष्यवाणी कर सकता है, तो इसका अर्थ है कि भविष्य की समस्त घटनाएँ नियत हैं । भविष्यदर्शन और पूर्वज्ञान में पूर्वनिर्धारण गभित है। यदि भविष्य की सभी घटनाएँ पूर्वनियत हैं तो वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और पुरुषार्थ का क्या अर्थ है ? यदि जीवन की समस्त घटनाएँ पूर्वनियत है तो फिर नैतिक आदर्श, वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और पुरुषार्थ का कोई अर्थ नहीं रहता। सर्वज्ञ के पूर्वज्ञान में कर्म का चयन निश्चित होता है, उसमें कोई अन्य विकल्प नहीं होता; तब वह चयन चयन ही नहीं होगा और चयन नहीं है तो उत्तरदायित्व भी नहीं भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ०६४९. २. कठोपनिषद्, रा२३. ३. भगवद्गीता (रा०), पृ०६४-६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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