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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता २६ कि व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण कर लेने पर उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता, तब वह नियतिवाद बन जाता है । यदि हम यह मान लें कि हम अपने भविष्य को बना सकते हैं, लेकिन उसके साथ ही यह भी स्वीकार कर लें कि हम अपने वर्तमान में, जो हमारे भूत का परिणाम है, कोई परिवर्तन नहीं कर सकते तो हम अपने भावी के निर्माता भी नहीं रहते । पूर्व निर्धारणवादी नियतिवाद सर्वकालों के लिए व्यक्ति के हाथ से जीवननिर्माण की शक्ति छीन लेता है, जब कि भाग्यवाद कहता है कि भूत तुम्हारा था, भविष्य भी तुम्हारा है; लेकिन वर्तमान तुम्हारे भूत के अधिकार में है, तुम उसमें स्वेच्छया कुछ नहीं कर सकते । लेकिन भूत और भावी को अपने हाथ में मान लेने पर भी यदि वर्तमान हमारे अधिकार में नहीं है तो भूत और भावी भी वस्तुतः हमारे अधिकार में नहीं हैं और इस प्रकार नैतिक और आध्यात्मिक विकास की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । भाग्यवाद कर्मसिद्धान्त को तो स्वीकार करता है, लेकिन उसे इतना कठोर बना देता है कि उसमें पुरुषार्थवादी कर्मसिद्धान्त नियतिवाद बन जाता है । भारतीय कर्मसिद्धान्त की कठोर व्याख्या स्वयं एक नियतिवादी निष्कर्ष की ओर ले जाती है । यदि हम यह मान लेते हैं कि हमारे वर्तमान आचरण की छोटीबड़ी सभी क्रियाएँ पूर्व कर्मों का फल होती हैं तो फिर भावी चरित्र के निर्माण के लिए हमारे पास कुछ नहीं रह जाता। यही कारण है कि बुद्ध ने वर्तमानकालिक क्रियाओं को समग्ररूपेण पूर्वकर्म से निर्धारित होना स्वीकार नहीं किया, न यह स्वीकार किया कि जो भी कर्म किया जाता है उस सबका भोग अनिवार्य है । लेकिन आचार्य शंकर गीता की टीका में ऐसी व्याख्या करते हैं जिससे समर्थन मिलता है । वे लिखते हैं कि 'जीवन के लिए जो कुछ आँख आदि की चेष्टा की जाती है, वे भी पहले किये हुए पुण्य-पाप का परिणाम है। जैन दर्शन के अनुसार भी व्यक्ति का जीवन और उसका परिवेश सभी उसके पूर्व कर्मों से निर्धारित होते हैं । लेकिन इन आधारों पर जैन दर्शन और गीता को इस वर्ग में नहीं लिया जा सकता । क्योंकि जैन दर्शन और गीता यह भी मानते हैं कि व्यक्ति केवल कर्म-नियम से शासित होनेवाला ही नहीं है, उससे ऊपर भी है । समग्र व्यक्तित्व को कर्म के नियम के अन्त-गंत नहीं बांधा जा सकता । नियतिवाद को खोलने या मूंदने ५. ईश्वरवाद जब ईश्वरवादी धारणाओं में यह मान लिया जाता है कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है और हमारी वैयक्तिक इच्छाएँ एवं कर्म भी उसकी इच्छा से प्रेरित होते हैं तो हम पुनः एक बार नियतिवाद की ओर चले जाते हैं । ईश्वरीय या देवी पूर्वनिर्णयन के इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त शक्ति परमात्मा के हाथों में होती है । व्यक्ति तो नितान्त असहाय, स्वतन्त्र रूप से संकल्प और प्रयत्न करने में असमर्थ और १. अंगुत्तरनिकाय, ३३६१, ३६६. २. गीता ( शांकरभाष्य ), १८/१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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