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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन का विरोधी नहीं है। महाभारत में स्पष्ट कहा है कि समस्त कर्म अपने स्वभाव को सूचित करते हैं। स्वभाव और कुछ नहीं, पूर्व कर्मों के द्वारा निर्धारित आदत है, वह पूर्व चरित्र से निर्मित वर्तमान चरित्र है और इस अर्थ में नैतिकता का एक महत्त्वपूर्ण अंग भी है। जैन कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में व्यक्ति की पूर्वबद्ध कर्मप्रकृतियाँ ही उसका स्वभाव है, जिससे वह निर्धारित होता है। लेकिन यह कर्मप्रकृति आत्मा का स्वलक्षण नहीं है, एक आरोपित अवस्था है। ४. भाग्यवाद
भवितव्यतावाद निर्धारण के किसी कारण को प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं समझता । उसके अनुसार सभी घटनाएं पूर्वनियत है, उनका कोई कारण या हेतु नहीं है । जिस समय में जो जैसा होना है वह वैसा ही होगा, उसका कोई कारण नहीं दिया जा . सकता। इसके विपरीत भाग्यवाद कारणता के प्रत्यय को स्वीकार कर कर्मसिद्धान्त की कठोर व्याख्या के आधार पर अपने नियतिवादी निष्कर्ष को प्रस्तुत करता है। भाग्य पूर्वकर्म ही हैं जो वर्तमान जीवन का निर्धारण करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक क्रिया या कर्म का फल होता है और वह फल स्वयं में एक क्रिया होता है जो किसी अनुवर्ती फल का कारण बन जाता है। प्रत्येक कर्म अपने पूर्ववर्ती कर्म का कार्य होता है और अनुवर्ती कर्म का कारण होता है, और इस प्रकार यह कार्य और परिणाम की यह शृंखला स्वतः चलती रहती है । हमारे पूर्ववर्ती जीवन के घटनाक्रम से वर्तमान जीवन के घटनाक्रम का निश्चय होता है और यही घटनाक्रम हमारे भावी जीवन के घटनाक्रम का निश्चय करता है। भूत के कारण हमारे वर्तमान का निश्चय हो चुका होता है और वही वर्तमान हमारे भावी का निश्चय करता है । व्यक्ति अपने वर्तमान में, जो पूर्वभूत से निश्चित है, परिवर्तन नहीं कर सकता और यदि व्यक्ति वर्तमान में परिवर्तन नहीं कर सकता तो वह अपने भावी में भी परिवर्तन नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो उसी अपरिवर्तनीय वर्तमान से उत्पन्न है। यही बात इस प्रकार भी रखी जा सकती है कि हमारे पूर्व निर्मित चरित्र के आधार पर वर्तमान के कर्म निःसृत होते हैं जो स्वयं हमारे भावी चरित्र का निर्माण करते हैं। इस प्रकार हमारे चरित्र का प्रवाह भूत से भविष्य की ओर बहता रहता है, व्यक्ति उसमें स्वेच्छा से कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। इस प्रकार भाग्यवाद कारणता के प्रत्यय को स्वीकार कर जब व्यक्ति में वर्तमान में परिवर्तन करने की क्षमता को स्वीकार नहीं करता, तब वह नियतिवाद बन जाता है। समीक्षा
भाग्यवाद यह तो स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, लेकिन जब वह कार्य-कारणता की कठोर व्याख्या के आधार पर यह भी मान लेता है १. महाभारत, शान्तिपर्व, २२२२२५.
सर्वार्थसिद्धि), ८।३; तत्त्वार्थसत्र ( राजवातिक ), ८।३.
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